स्वप्निल तिवारी ’आतिश’ की गज़लें विगत कुछ माहों से यूनिप्रतियोगिता का अभिन्न हिस्सा रही हैं और ऊँचे पायदानों पर अपनी जगह बनाती रही हैं। पिछले माह भी इनकी एक ग़ज़ल दूसरा स्थान बनाने मे सफ़ल रही थी। जून माह की प्रतियोगिता मे उनकी ग़ज़ल तीसरे स्थान पर रही है।
पुरस्कृत ग़ज़ल
आस्तीनों में पलने वाले हैं
ये नए दौर के उजाले हैं
आप कहते थे " कौडियाले* हैं"
आज ये सब नसीब वाले हैं
फूल शाया* हुए हैं पौधों पर
लो बहारों के ये रिसाले* हैं
एक सरकारी दफ्तर है दुनिया
आओ गर जेब में हवाले* हैं
मज़हबी बंदिशें अभी भी हैं
कुछ जगह पानियों पे ताले हैं
बारिशें पड़ गयी हैं नीली अब
बादलों ने तो सांप पाले हैं
ये दिल मेरा कुछ सियासी* है
इसने मसले बहुत उछाले हैं
यूँ तो दुनिया अंधेर नगरी है
आंच आतिश हैं तो उजाले हैं
(कौडियाले - विषैले जीव जंतु, शाया - प्रकाशित, रिसाले - पत्रिका, हवाले - सिफारिश, सियासी- राजनीतिक)
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पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
prashansha ke liye shabda nahii........badhiyaa prastuti
behad khoobsoorat ghazal kahi hai swapnil ..har ek sher lajavaab hai..
bandhai :)
बारिशें पड़ गयी हैं नीली अब
बादलों ने तो सांप पाले हैं
हाँ शायद प्रकृति ने भी सीख लिया है हमारी फितरतों को ..
सुन्दर गज़ल
आपके पास शब्दों का अच्छा भंडार है और इस्तेमाल की कला भी...हिंदयुग्म की अच्छी खोज हैं आप....लिखते रहें...
good one...
:)
मतला बहुत अच्छा लगा और ये शेर
एक सरकारी दफ्तर है दुनिया
आओ गर जेब में हवाले* हैं
मज़हबी बंदिशें अभी भी हैं
कुछ जगह पानियों पे ताले हैं
ये दिल मेरा कुछ सियासी* है
इसने मसले बहुत उछाले हैं
वाह बहुत खूब। बधाई\
ये दिल मेरा कुछ सियासी* है
इसने मसले बहुत उछाले हैं
क्या बात है सुन्दर रचना...बधाई!!
Bahut bahut shukriya aap sabka doston
बेहतरीन! मैं जब से ब्लॉग जगत में आया हूँ, स्वप्निल जी कि कविता को पढ़ रहा हूँ, और इनकी रचनाएँ मुझे हमेशा अच्छी लगती हैं
kya kahun..sannata.
Urdu..urdu aur bemisal urdu..
matlab..gazab hai bhai :)
Bahut khoob .. Lajawaab gazal hai ..
वाह स्वप्निल बहुत खूब.
स्वप्निल जी बहुत ही अच्छी ग़ज़ल .....
हर शे'र अपनी अलग पहचान देता सा ......
फूल शाया* हुए हैं पौधों पर
लो बहारों के ये रिसाले* हैं
न्य प्रयोग ......
एक सरकारी दफ्तर है दुनिया
आओ गर जेब में हवाले* हैं
बहुत खूब.....!!
मज़हबी बंदिशें अभी भी हैं
कुछ जगह पानियों पे ताले हैं
मज़हब की बंदिशों पर पानी के ताले तो हमेशा से रहे ...पर शेर में प्रयोग पहली बार पढ़ा .....
बारिशें पड़ गयी हैं नीली अब
बादलों ने तो सांप पाले हैं
अद्भुत ......!!
ये दिल मेरा कुछ सियासी* है
इसने मसले बहुत उछाले हैं
क्या बात है इस दिल की .....
छूती हुई ग़ज़ल....बहुत अच्छा लिखने लगे हैं .....आपकी मेहनत जल्द ही रंग लाये दुआ है ......!!
Sabhi doston ka bahut bahut shukriya....
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