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Thursday, July 15, 2010

बैठक बंद रहती है


संगीता सेठी यूनिकवि प्रतियोगिता के उन प्रतिभागियों में से हैं, जिनकी कविताएँ लगभग हर महीने ही हिन्द-युग्म पर प्रकाशित होती हैं। जून 2010 की यूनिकवि प्रतियोगिता में संगीता की कविता ने दसवाँ स्थान बनाया।

पुरस्कृत कविता: बैठक बन्द रहती है मिट्टी के डर से

वो बैठक का नज़ारा
ज़िसमें बाबा के दोस्त
जमा करते थे घण्टॉं
और मै भी
उसका हिस्सा हुआ करती थी
फुदकती हुई
कभी इस कुर्सी तो कभी उस मूढ़े
कभी प्लेट में पड़े
चिवड़े पर झपटती
तो कभी बाबा के गिलास से
आम का पाना पीती
कुछ बड़ी हुई तो सपने ईज़ाद हुए
माँ से कहने लगी
सोफे लाओ ना अपनी बैठक में
और गुलदान भी
जैसे मेरी सहेली के घर पर हैं
ताकि हमारी बैठक भी महक उठे
फूलों से
माँ-बाबा ने मुस्कुरा कर
टाल दिया

सपने कुछ अंकुरित हुए
ना सही सोफा ना सही गुलदान
सरकण्डी के मूढों को ही सजाने लगी
माँ की पुरानी साड़ियों से
अपने पुराने सूटों से
बनाने लगी कुशन और
मैं खुद काढ़ने लगी कशीदे
और सजने लगी बैठक

अब मेहमान आते तो मैं
ट्रे में करीने से ले जाती गिलास
आम के पाने से भरे हुए
एक प्लेट मे बिस्किट सजे हुए
ओम अंकल मेरी
प्रशंसा करते नफाज़त की
रामप्यारी आँटी
मेरा कशीदा निहारती
मैं सकुचा जाती
उनके जैसे सोफे तो ना थे
हमारी बैठक में

सुन्दर बैठक के सपने
बुनते और पनपते रहे
उन सपनों के जंजाल को लिए
मैं ससुराल की चौखट पर आ गई
इंटीरियर वास्तु फेंगशुई जैसी कलाओं
की बारीकियाँ सीखती रही
सजाती रही अपनी बैठक
कलात्मक सोफे
काँच के मेज
महँगे गुलदान
कढा़ईदार कुशन
वास्तु के अनुसार तस्वीरें
फेंगशुई के तमाम खिलौने
मेरी बैठक को महल का
रूप देते रहे
और मैं पोंछती रही
तमाम चीजों को
बड़ी नज़ाकत से
पर नहीं आता है अब
कोई मेहमान
समय की कमी के कारण
कोई आता भी है जल्दी में
तो बैठा दिया जाता है
दालान में...आहाते में
या खड़े-खड़े ही
विदा कर दिया जाता है
महल जैसी बैठक में
बैठने के
नियम तय किए हैं
हर कोई तो
नही बैठाया जाता
उन गद्देदार सोफों पर
इसलिए
ना सजते हैं काजू प्लेटों में
ना बादाम-शेक परोस पाती हूँ
महँगी क्रॉकरी
शो-केस में सजी रहती है
और बैठक बन्द रहती है
मिट्टी के डर से

पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।

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6 कविताप्रेमियों का कहना है :

मनोज कुमार का कहना है कि -

संगीता सेठी जी अपनी इस कविता के लिए किसी भारी-भरकम कथ्य को नहीं उठाती, फिर भी अपने काव्यलोक की यात्रा करते हुए कुछ ऐसा अवश्य कह गयी हैं, जिसे नया न कहते हुए भी हल्का नहीं कहा जा सकता।

M VERMA का कहना है कि -

महल जैसी बैठक में
बैठने के
नियम तय किए हैं
नियमों से आबद्ध हम कितने औपचारिक हो जाते हैं
और फिर अनौपचारिकता के सुख से वंचित भी.
बहुत खूबसूरती से आपने परिवर्तन की ओर इंगित किया है.
सुन्दर रचना

mastkalandr का कहना है कि -

महल जैसी बैठक में
बैठने के
नियम तय किए हैं
हर कोई तो
नही बैठाया जाता
उन गद्देदार सोफों पर
इसलिए
ना सजते हैं काजू प्लेटों में
ना बादाम-शेक परोस पाती हूँ
महँगी क्रॉकरी
शो-केस में सजी रहती है
और बैठक बन्द रहती है
मिट्टी के डर से ..
वाह वाह अति सुन्दर ..आपने मुझको अतीत में पंहुचा कर यादें ताज़ा कर दी ..
हम तहे दिल से आपका स्वागत करते है .. मक्
http://www.youtube.com/mastkalandr

दिपाली "आब" का कहना है कि -

sangeeta ji

kavita to nahi, main ise kahani keh skti hun, badalte samay ke saath, logo ke behaviour mein bhii badlaav aaaya hai, yeh baat sach hai.. Feeling bahut pure hai, par kahin na kahin aisa lagta hai ki kahin kuch adhoora hai..

सदा का कहना है कि -

महल जैसी बैठक में
बैठने के
नियम तय किए हैं
हर कोई तो
नही बैठाया जाता
उन गद्देदार सोफों पर

बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना बधाई ।

VIVEK VK JAIN का कहना है कि -

संगीता जी आपकी कविता एक विराट अनुभव वयां करती है. वक़्त के साथ लोग तो बदल ही रहे हैं.

'अब मेहमान आते तो मैं
ट्रे में करीने से ले जाती गिलास
आम के पाने से भरे हुए
एक प्लेट मे बिस्किट सजे हुए
ओम अंकल मेरी
प्रशंसा करते नफाज़त की
रामप्यारी आँटी
मेरा कशीदा निहारती
मैं सकुचा जाती
उनके जैसे सोफे तो ना थे
हमारी बैठक में.'

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