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Tuesday, June 22, 2010

कविता उतारती है कपड़े


प्रतियोगिता की सोलहवीं कविता हरकीरत कल्सी हकीर की है। कवयित्री बहुत लम्बे अर्से के बाद हिन्द-युग्म पर सक्रिय हुई हैं। हिन्द-युग्म पर कई बार प्रकाशित हो चुकी हैं।

कविता: कपड़े उतारती कविता

मानव मन की चेतना में
नित हो रहा है विस्फोट ...
आद्यांत राजनीती में धँसे
हिम शय्या पर लेटे
परम्पराओं के ....
नवाचारों के संघात से
क्षीण-विक्षीण संस्कृति में
लिपटी कविता
वेदना और आक्रोश में
उतारती है कपड़े .....

सत्ता पक्ष ने
खड़ी कर दी है इक
अमानवीय क्रूर बौद्धिकता ....
जहाँ सम्वेदनशील कविता
देश की अंतहीन दुर्दशा पर
बहाती है आँसू .....

इक खामोश डर
कहीं भीतर कुलबुलाता है
पता नहीं कब, कौन,कहां
हथियार लिए आये
और दाग दे गोली सीने पर
अभी पिछले ही दिनों वह
देश की सभी बड़ी ताकतों को
जेब में लिए घूमता था .....

कोई रहस्य नहीं है इसमें
न असमंजसता का है कोई कारण
मानवीय शक्तियों ने छीन ली है
मानव से उसकी मनुष्यता ....

अब वह नहीं लिखता
प्रेम-प्रसंग पर कवितायें
किसी भारी-भरकम पत्थर की तरह
अपने वाक्‌जाल से पटक देता है
कविता को सड़क पर ....

और कविता धराशाई हो
अपने रिसते ज़ख्मों से
धीरे-धीरे फ़ैलाने लगती है
शब्दों का संक्रमण ......!!

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

16 कविताप्रेमियों का कहना है :

vandana gupta का कहना है कि -

बेहद सशक्त और संवेदनशील रचना……………सोचने को मजबूर करती है।

M VERMA का कहना है कि -

अभी पिछले ही दिनों वह
देश की सभी बड़ी ताकतों को
जेब में लिए घूमता था .....
---
यथार्थपरक कविता ...
उद्वेलित करती है और सत्य को उद्घाटित कर रही है
सुन्दर भाव

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार का कहना है कि -

अंतर्जाल पर हिंदी में साह्त्यिक लेखन के लिए कुछ नाम अपनी पहचान आप हैं । ऐसा ही एक शीर्षस्थ श्रेणी में विशिष्ठ स्थान रखने वाला नाम है हरकीरत कल्सी हकीर !

आपकी प्रस्तुत रचना "कविता उतारती है कपड़े" तमाम विसंगतियों से उद्वेलित कवि मन का आहत हो'कर क़लम चलान्रे की स्थिति को इंगित करती है ।

बहुत ही हृदयविदारक स्थिति है…
अब वह नहीं लिखता
प्रेम-प्रसंग पर कवितायें

सृजन का स्रोत प्रेम ही है ।
रचनाकार किसी व्यक्ति , विचार , कारण , स्थिति , स्थान से स्वयं के प्रेम को अभिव्यक्ति देने के निमित्त ही लेखनी चलाता है ।
…लेकिन वही क़लमसंवाहक वेदना और आक्रोश में
किसी भारी-भरकम पत्थर की तरह
अपने वाक्‌जाल से पटक देता है
कविता को सड़क पर ....

तो
कविता धराशाई हो
अपने रिसते ज़ख्मों से
धीरे-धीरे फ़ैलाने लगती है
शब्दों का संक्रमण ......!!


कविता के ऐसे करुण बदलाव के लिए उत्तरदायी कारणों को ढूंढ़ा जाना चहिए ।

सधी हुई लेखनी से एक विचारोत्तेजक कविता के लिए हरकीरत कल्सी हकीर जी को बहुत साधुवाद !

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

दिपाली "आब" का कहना है कि -

jaane kyun mera comment yahan se delete ho gaya hai..
khair.. main fir kehti hun, kaafi prabhaavshaali rahi aapki yeh rachna, badhai

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

कोई रहस्य नहीं है इसमें
न असमंजसता का है कोई कारण
मानवीय शक्तियों ने छीन ली है
मानव से उसकी मनुष्यता ....

अब वह नहीं लिखता
प्रेम-प्रसंग पर कवितायें
किसी भारी-भरकम पत्थर की तरह
अपने वाक्‌जाल से पटक देता है
कविता को सड़क पर ....

और कविता धराशाई हो
अपने रिसते ज़ख्मों से
धीरे-धीरे फ़ैलाने लगती है
शब्दों का संक्रमण ......!!
कवयित्री समाज में बढ़ रहे संक्रमण को और कवि और कविता की असहायता को चित्रण करने में सफ़ल रही हैं. काश! हम कविता को कपड़े उतारने को मजबूर न करते.

manu का कहना है कि -

प्रभाव छोडती है रचना....
कविता पर सोचने को विवश करती कविता...

निर्मला कपिला का कहना है कि -

और कविता धराशाई हो
अपने रिसते ज़ख्मों से
धीरे-धीरे फ़ैलाने लगती है
शब्दों का संक्रमण ......!!
हरकीरत जी हमेशा ही दिल की गहराईयों मे उतर कर रचना लिखती हैं बहुत अच्छी लगी रचना बधाई।

Nikhil का कहना है कि -

हरकीरत जी को कई दिन बाद पढ़ रहा हूं....एकदम नया कलेवर....पहले से काफी अलग....और रोष भी ज़्यादा...पहले रुमानियत थी....ऐसा क्यों...खैर, अच्छा ही है....

स्वप्निल तिवारी का कहना है कि -

acchi rachna hai..aap ki jaisi kavitayen padhi hain unse kafi hatke..

Akhilesh का कहना है कि -

अब वह नहीं लिखता
प्रेम-प्रसंग पर कवितायें
किसी भारी-भरकम पत्थर की तरह
अपने वाक्‌जाल से पटक देता है
कविता को सड़क पर ....

pahle wali kalsi ji nahi hai yeh,
khair yeh bhi acchi lagi.

हरकीरत ' हीर' का कहना है कि -

निखिल जी , स्वप्निल जी . अखिलेश जी ....आती हूँ अगली बार आपकी पसंदीदा बन .....!!

Anonymous का कहना है कि -

मेरा ख्याल सही शब्द 'असमंजस' है, न कि 'असमंजसता'. इस में भला 'ता' लगाने की क्या ज़रूरत थी? - शालिनी

सदा का कहना है कि -

और कविता धराशाई हो
अपने रिसते ज़ख्मों से !

बेहतरीन शब्‍द रचना ।

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