आओ मिल कर खोजें प्यार
लुप्त प्रजातियों की भाँति।
चाहो तो पूछ लो
अरगनी पर टाँगे चाँद से
या फिर डाल दो इक मेल
मंगल को।
परिंदों,
किसी खुली खिड़की से घुस जाओ
आसमान के घर में
या फिर डाल्फिन से कहो
खोजे समुंदर के तलहट में
हो सकता है
टाइटॅनिक के नीचे दबा हो प्यार।
कोयला खदान के मालिको
ज़रा छू कर देखना धरती की कोख
शायद वहाँ पल रहा हो प्यार।
क्रेन-ऑन्स*।
हाँ प्रेम का ही भ्रूण था
गर्भपात
वर्तमान और निकट भविष्य में भी
प्रेम इतना दुर्लभ है
कि आओ सब मिल कर
प्रेम को परमात्मा मान लाते हैं।
हम दोनो को खोजते रहना चाहते हैं
पाना नही।
अभी खबर आयी है
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में
पाए गये है दो लोग प्यार करते हुए
एक को गोली मारी गयी
दूसरे को काटा गया गडासे से
प्यार का खून पा
लहलहा गयी प्रधान की चुनावी फसल
पंच के फ़ैसले पर
उठा ले गये कुछ लोग प्रेमी की बहन को
खेत में
परमात्मा प्रेम का हश्र देख
बिला गये है जाने कहाँ
देख ले रे नकुला
जंघवा पर तिल।
हो हो हो
कै बरिस के होई
ए फ़ैसला त पंचे करिहे।
खी खी खी
सारे गाँव वाले खिखिया कर
हँस रहे थे पर
खेत शर्मिंदगी झेल नही पाए
सूखा गयी सरसों
किरा गये धान
सारे पत्ते गिरा कर
नंगी औंधी पड़ी है अरहर
गाँव के बीचो बीच
लड़की की तरह.
(*खदानों मे क्रेन्स के इस्तेमाल से संबंधित शब्द)
कवि- अखिलेश श्रीवास्तव
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
shaandaar kavita kahi hai
हम दोनो को खोजते रहना चाहते हैं
पाना नही।
yeh misra thoda confuse kar raha hai, kisi cheez ko khoja bhi to paane ke liye hi jaata hai..
Kavita yahan se shuru hoti hai
अभी खबर आयी है
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में
पाए गये है दो लोग प्यार करते हुए
एक को गोली मारी गयी
दूसरे को काटा गया गडासे से
प्यार का खून पा
लहलहा गयी प्रधान की चुनावी फसल
पंच के फ़ैसले पर
aur yahan khatm ho jaati hai, mere liye yahi kavita hui.. Badhai.
आक्रोश ज़रूरी है, मगर ऑनर किलिंग पर बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है...
देश में एक पूरा सिस्टम है जो इतना धीमा है कि कुछ नये की उम्मीद बेमानी है...कल सुप्रीम कोर्ट को केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस भेजना पड़ा कि आपने प्रेमी जोड़ों की सुरक्षा के लिए क्या किया है...क्या कोर्ट को नहीं पता कि सरकारों ने कुछ नहीं किया है...सिवाय वोट बैक की राजनीति के सिवा....अब अदालतों पर सवाल उठाने का समय आ गया है...क्या किसी को मारने से परिवार या समाज की इज्जत बढ़ सकती है...
सारे गाँव वाले खिखिया कर
हँस रहे थे पर
खेत शर्मिंदगी झेल नही पाए
सूखा गयी सरसों
किरा गये धान
सारे पत्ते गिरा कर
नंगी औंधी पड़ी है अरहर
गाँव के बीचो बीच
लड़की की तरह.
शर्मनाक स्थिति है.............. रुक ही नहीं रही.............
किन्तु यह ही प्रेम नहीं, यह तो वासना है...
प्रेम इससे भी आगे की चीज है....
खोजते रहें........ शायद मिल भी जाय
देख ले रे नकुला
जंघवा पर तिल।
हो हो हो
कै बरिस के होई
ए फ़ैसला त पंचे करिहे।
खी खी खी
सारे गाँव वाले खिखिया कर
हँस रहे थे पर
खेत शर्मिंदगी झेल नही पाए
सूखा गयी सरसों
किरा गये धान
सारे पत्ते गिरा कर
नंगी औंधी पड़ी है अरहर
गाँव के बीचो बीच
लड़की की तरह.
अखिलेश जी आपकी कवितायेँ हमेशा ही प्रभावी होती हैं .....
वासना प्रेम का ही दुरूपयोग है ....प्रेम का स्थान अब वासना लेती जा रही है .....!!
वर्तमान और निकट भविष्य में भी
प्रेम इतना दुर्लभ है
कि आओ सब मिल कर
प्रेम को परमात्मा मान लाते हैं।
हम दोनो को खोजते रहना चाहते हैं
पाना नहीं ...
वाह ...!
हाँ,
सही कहा आपने....
हम दोनों को खोजते रहना चाहते हैं..शायद पाना नहीं....शायद हमें विश्वास हो चुका है कि इन्हें पाना संभव ही नहीं है...
इसलिए..बस...
खोजते रहना चाहते हैं...
हम दोनो को खोजते रहना चाहते हैं
पाना नही।
सही कहा आपने अपने भीतर ही प्रेम रुपी परमेश्वर को हम पनपने नही देते और उसे खोजते रहते हैं ताउम्र...बधाई सुन्दर रचना के लिए!
अच्छा होना तो अपनी जगह है अखिलेश जी मगर ये कविता अच्छी होने के साथ सच्ची भी है! निशाने पर एक दम सटीक बैठी! अगले ओलम्पिक में इसे ही भेज देते है शूटिंग स्पर्धा के लिये!
aap sabhi ka dhanybaad.
nikhil anand bahut accha likh rahe hai aaj kal kavita bhi ,comment bhi.
Hindyugm prabhavi hota ja raha hai. sambhavna ki ik samicha panki mein chapi hai wahi pad raha hoon abhi net par.
कि आओ सब मिल कर
प्रेम को परमात्मा मान लाते हैं।
हम दोनो को खोजते रहना चाहते हैं
पाना नही।
प्रेम और परमात्मा दोनो के बारे मे हमारे छल इन पंक्तियों मे समाहित हैं..प्रेम पर कविताएँ लिखी जाती है..लिखी जाती रहेंगी..मगर यह कविता इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है जब प्रेम एक और ’इमोशनल अत्याचार’ और स्प्लिट्जविला’ जैसे एम टीवी युग के आधुनिक संस्करण और दूसरी और क्रूर पुरातन पंचायतीय परंपराओं के बीच झूल रहा हो..
कविता व्यंग्य करती है हमारी संवेदनहीनता पर कि सरसों, अरहर, धान भी हमसे ज्यादा समझदार दिखते हैं..
अखिलेश जी की कविताएँ कभी अपनी सामयिकता नही खोतीं..
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