अप्रैल माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की नौवीं कविता के रचनाकार बीकानेर (राज॰) निवासी राजेन्द्र स्वर्णकार काव्य की सभी विधाओं, रंगों-रसों में राजस्थानी, हिंदी और उर्दू में ( ब्रज, भोजपुरी और अंग्रेजी में भी ) मुख्यतः छंदबद्ध के सृजनकर्म में समलग्न हैं। लगभग ढाई हज़ार से अधिक गीत, ग़ज़ल, नवगीत, कवित्त, सवैयों, कुंडलियों सहित दोहों, सोरठों, कविताओं का सृजन कर चुके हैं। लगभग ढाई सौ से भी अधिक स्वयं की मौलिक धुनों का निर्माण कर चुके राजेन्द्र ने मंच के मीठे गीतकार और लोकप्रिय ग़ज़लकार के रूप में लगभग चालीस शहरों, कस्बों, गावों में कवि सम्मेलन, मुशायरों में ससम्मान काव्यपाठ किया है। आकाशवाणी से भी निरंतर रचनाओं का प्रसारण। देश भर में लगभग सवा सौ पत्र-पत्रिकाओं में एक हज़ार से अधिक रचनाएँ ससम्मान प्रकाशित। अनेक महत्वपूर्ण संकलनों में परिचय और रचनाएँ संकलित। गीत-ग़ज़ल के शीर्षस्थ हस्ताक्षरों द्वारा इनके कृतित्व की प्रशंसा हुई है। अब तक दो पुस्तकें (रूई मांयी सूई {राजस्थानी ग़ज़ल संग्रह/ प्रकाशन वर्ष 2002} और आईनों में देखिए { हिंदी ग़ज़ल संग्रह/ प्रकाशन वर्ष 2004 }) प्रकाशित। अनेक सम्मानों से सम्मानित।
पुरस्कृत कविताः शरण कहाँ मिलेगी
मूल्य
संस्कार
नैतिकता
मर्यादा
आत्म विवेचन
और
जीव ऐसे ही कुछ अन्य …
विलुप्त जातियों के !
नहीं बन सके जो
केंद्र आकर्षण का
युग के बच्चों में ,
डायनासोर के समकक्ष…!
न ही जगा सके अकुलाहट भरी उत्सुकता
कमरों की चिटकनियाँ
भीतर से बंद किये बैठी
नवयौवनाओं में,
आँखों से चिपके
कंप्यूटर स्क्रीन पर तैरती
पोर्न साइट्स की तरह…!
नहीं हुए ये शोध का विषय
पुरातत्ववेत्ताओं के लिए
समुद्र में संभाव्य द्वारिका के समान…!
सरक लेती है
इन सफ़्हों को पढ़ने से
गुरेज़ करती
फुहड़ाती-नंगाती
ऐंचक-भैंचक पीढ़ी भावी कर्णधारों की …!
रोती है रोना, तो बस…
बुढ़ाई बेबस हड्डियाँ
लोथ लाशें कुछ,
…आँखों के सामने
देखते हुए
अपहरण ज़बरज़िना और क़त्ल
इन कलेजों के टुकड़ों का!
परंतु,
निग़ल ली गई है संभावना
सावित्री के सत्यवान के पुनर्जीवित होने की…
पाताललोक की आवारा मछली द्वारा
शकुंतला की अंगूठी की तरह…,
और,
बिसर चुका है काल-दुष्यंत
मूल्य
संस्कार
नैतिकता
मर्यादा
आत्म विवेचन
आदि-आदि!
होगा भी क्या,
कभी मिल भी गए जीवाश्म
इनके यदि…,
संस्कृति के समुद्र में
बंसी लटकाने आए
किसी शौक़िया सैलानी को?
… … …
चल रहा है घुटरुन अभी तलक
विज्ञान - शिशु ... ... ...
पता नहीं कब
कैसे बचकर पंजों से बटुकभोगियों के,
रखेगा क़दम वह
परिपक्व यौवन की दहलीज़ पर ?
और,
पाएगा अपनी पूर्णता को !
रह भी पाएगा भला नामलेवा कोई इनका
तब तक?
फूँक भी दिए गए प्राण यदि,
एकत्र किए हुए अवशेषों में
किसी तरह …
शरण कहां मिलेगी!?
खचाखच भर चुकी होगी पृथ्वी
और भी विषैले-भयावह जीवों से
तब तक … … … … !
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
आवश्यक चिंतन करती रचना
खचाखच भर चुकी होगी पृथ्वी
और भी विषैले-भयावह जीवों से
सही है और भी न जाने कितने और भयावह पड़ाव देखने को मिलेंगे.
सार्थक और अच्छी कविता
Gambheer samasya darshaati rachna.. Kaafi kuch keh daala aapne, par sach hi kaha.
फूँक भी दिए गए प्राण यदि,
एकत्र किए हुए अवशेषों में
किसी तरह …
शरण कहां मिलेगी!?
खचाखच भर चुकी होगी पृथ्वी
गहरे भावों के साथ अनुपम प्रस्तुति ।
ek to kavita ka vishay ..doosre isme prayukt bimb..teesari iski kushal jatrilta....sab mil kar is rachna ko alag hi roop dete hain ... mere liye asambhav hai iski tareef me kuch keh pana... :)
oooooooofffffffffffffff.............................
hamne samjhaa simat rahi hai zameeN
faasle tang hote ja rahe haiN
ab ye jaanaa badhi hai bheed bahut...........
jo thode se the, wo log khote jaa rahe hain....
होगा भी क्या,
कभी मिल भी गए जीवाश्म
इनके यदि…,
संस्कृति के समुद्र में
बंसी लटकाने आए
किसी शौक़िया सैलानी को?
kya kavita hai...shandaar..
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