प्रतियोगिता की पाँचवीं कविता की रचयित्री रंजना डीन दूसरी बार यूनिकवि प्रतियोगिता में हिस्सा ले रही हैं, लेकिन पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। रंजना डीन पिछले तीन वर्षों से लखनऊ (उ॰प्र॰) के एक प्रतिष्ठित निजी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। व्यावसायिक रूप से कलाकार हैं। इन्हें प्राकृतिक सौंदर्य, फोटोग्राफी, कला एव कविता लेखन में बेहद रूचि है।
पुरस्कृत कविताः मैं टूटे बर्तन के जैसी
कुछ सूनापन कुछ सन्नाटा
मन ने नहीं किसी से बाँटा
दर्द न जाने क्यों होता है
दीखता नहीं मुझे वो काँटा।
गुमसुम-सी खिड़की पर बैठी
आते जाते देखूँ सबको
अपने से सारे लगते हैं
तुम बोलो पूजूँ किस रब को।
पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो
तो यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।
नहीं लोग अपने से लगते
नहीं किसी से कह सकते सब
सब इंसा मौसम के जैसे
जाने कौन बदल जाये कब?
दौड़ में ख़ुद की जीत की ख़ातिर
कितने सर क़दमों के नीचे
हुनर कोई भी काम न आया
सारे दबे नोट के नीचे।
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
waah bahut sundar kavita
दौड़ में ख़ुद की जीत की ख़ातिर
कितने सर क़दमों के नीचे
हुनर कोई भी काम न आया
सारे दबे नोट के नीचे....
नाम और दाम पाने की अंधी दौड़ का कटु सत्य ...
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ...
वाह ...!!
पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो
तो यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।
rajana jee aaj ke samay ka pura chitran dikha diya aap ne ,
man me dabi ek tees , nadar hi ander dabi bhawanon ka sunderta se samna rakha hai,
sadhuwad
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।
ye misre achhe lage kaafi...
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।
मौसम का बदलना भी जरूरी है पर इनसान का संभलना भी जरूरी है.
बहुत सुन्दर रचना
एहसास देखने योग्य
सब इंसा मौसम के जैसे
जाने कौन बदल जाये कब?
सुन्दर रचना...
वर्मा जी ने सही कहा-संभलना भी जरूरी है.
आप सभी को धन्यवाद...मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है www.ranjanathepoet.blogspot.com
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।
नरी मन के भावों को अच्छी तरह शब्दों मे संजोया है। रंजना जी को बधाई
अच्छी कविता.
...बधाई.
to b true for a while v stand so blank after the poem that nothing can be thought of what to comment ........coz its so true n exact with deligent class......but then when i came back to senses i had like unlimited lines of appreciation.......HATS OFF RANJANA DEANE>>>keep up the good work!!
LALI PRIYA
आयुष्मती रंजना की कविता `मै टूटे बर्तन के जैसी' सचमुच बहुत अच्छी है। भाषा और छन्द पर उसका अधिकार है और नयी बात कहने की उसमेँ उत्कंठा है,जो उसे निश्चय ही आगे बढायेगी। मेरा आशीर्वाद। बहुत दिनोँ पर नयी पीढी के किसी रचनाकार ने मुझे प्रभावित किया है।
बुद्धिनाथ मिश्र/ देहरादून
Bahut hi acchi kavita hai apki. jo jindagi ki hakikat ko bayan karti hai. or ye bhi darshati hai ki aj ka insan apni safalta ke liye galat tariko ko bhi apna sakta hai. main apko apki kavita ke liye mubarakbad deti hoon.
behad achhi kavita
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।
गहरे भावों के साथ बेहतरीन शब्द रचना ।
यह सिर्फ एक कविता नहीं है ........................ यह नारी के मन की पीड़ा है जो आज इस आधुनिक युग में भी कहीं न कहीं दबी और कुचली सी मनःस्थिति में जी रही है ................. यह भावना है जो रेखांकित करती है उस नारी की पीड़ा को .......... जिसका जीवन हर दिन हर पल एक टूटे हुए बर्तन की तरह रिसता जा रहा है.
बहुत खूब चित्रण किया है रंजना जी आपने. आप सच में एक अच्छी कलाकार......एक अच्छी चित्रकार हैं. ढेर सारी शुभकामनाएं भविष्य के लिए.
" हे नारी तू मत कर चिंता समय एक दिन सब बदलेगा,
तेरा एक मसीहा होगा जो चुन चुन कर बदला लेगा."
- Anand
मेहनत की चक्की में पिस कर
दिन पर दिन घिसती जाती हूँ
मै टूटे बर्तन के जैसी
लगातार रिसती जाती हूँ।
वाह बहुत खूब ! सुन्दर रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई!
पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो
तो यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।
सच कहा..
सभी बंद अच्छे लगे. बधाई
पुते हुए चेहरों के पीछे का
काला सच दिख जाता है
दो रूपए ज़्यादा दे दो
तो यहाँ ख़ुदा भी बिक जाता है।
नहीं लोग अपने से लगते
नहीं किसी से कह सकते सब
सब इंसा मौसम के जैसे
जाने कौन बदल जाये कबघ्
वर्तमान में इंसान की नीयत का सुन्दर चित्रण, रंचना जी को बहुत बहुत बधाई
धन्यवाद।
विमल कुमार हेडा़
very good. congratulation
रंजना की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत इनका सामुदायिक पक्ष है ,ये अपनी कविता में जिन बिम्बों का इस्तेमाल करती हैं उन्हें कभी स्वकेंद्रित नहीं होने देती ,ये उदारता समकालीन कवियों में बहुत कम देखने को मिलती है और यही एक चीज इनकी हर कविता को महान बना देती है |इस कविता को पढ़कर अपनी ही लिखी एक पुरानी कविता याद आई -
तुमने तो छोड़ दिया साथी
मन की नाव को
लहरों की इच्छाओं पर
सर धुनती /हवाओं के सहारे
मेरी नाव धंसी रेत में
फंसी किनारे
मैंने खुद लहरों से नाता तोड़ लिया
वाह , बिलकुल वैसे ही जैसे कांच का सामान थे और टूट गए हम ...
मुझे लगता है कि कितने सर क़दमों के नीचे या फिर कितने दिल क़दमों के नीचे ?...
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