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Monday, May 17, 2010

आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर


युवा कवि दीपक मशाल अपनी लेखनी को लगातार परिपक्व करते जा रहे हैं। सितम्बर 2009 का यूनिकवि सम्मान प्राप्त कर चुके दीपक की एक कविता ने अप्रैल 2010 की यूनिकवि प्रतियोगिता में चौथा स्थान बनाया है।

पुरस्कृत कविताः बीज

और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए

अनगिन ख्वाबों के बीज अनगिनत
तुमने रोपे मेरी आँखों में
और चले गए बिन सींचे ही
मैंने कई बार सोचा
भून डालूँ इन बीजों को
अपने गुस्से की आग में

कई बार पूछना चाहा
कब सोना उगलेगी ज़मीन
कब अनाज से भरेंगे खलिहान
कब खिंच पायेगा ग्राफ
हक़ीक़त के सरकारी कागज़ पर
खालीपन से संतृप्तता की तरफ बढ़ता हुआ

अम्मा की कपड़े धोने वाली उस मुगरी से
जब पहली बार गेंद को पीटा था
तो झन्नाटेदार तमाचा मिला था इनाम तुमसे
इस कड़े निर्देश में पाग के कि
किसान का बेटा बनेगा सिर्फ किसान
और एकदिन झोंका गया था बल्ले को चूल्हे की आग में
जब जीत के लाया था मैं
मौजे के सबसे बेहतर बल्लेबाज़ का खिताब

अंकुरित होने से पहले ही
तुमने कर दी थी गुड़ाई उन बीजों की
जो सहमे से छिपाए थे खुद में
अस्तित्व एक उभरते खिलाड़ी का
फिर उन्हीं में जबरन बो दिए
जग के अन्नदाता बनने के सपने वाले बीज
ये समझा के कि बीज ही है आत्मा किसान की
बीज ही है जान इस जहान की..

दिन-बा-दिन बारिश बिना लीलती रही ये सूखी ज़मीन
हमारी खाद, हमारी आत्मा
और हर अगले साल
पुरानी को छोड़े बगैर पकड़ते गए हम
क़र्ज़ के काँटों वाली एक नयी डाली

खुशियाँ फिसलती गयीं
कभी अचार के तेल में सनी चम्मच की तरह

कभी गीले हाथ से निकलते साबुन की तरह
ना जाने क्यों लगा था तुम्हें
हमारे उगाये करोड़ों और अरबों ये दाने

हमें बना देंगे अन्नदाता दुनिया का

क्यों लगा कि वो उपज
बेहतर होगी किसी खिलाड़ी के बल्ले से उपजे
चार, पांच या छः छक्कों से
और बदले में मिल जायेंगे तुम्हें भी
लाखों नहीं तो कुछ हज़ार रुपये ही
जो आयेंगे काम चुकाने को क़र्ज़
चलाने को जीवन।

हरक्युलिस की तरह
कर्जों की धरती का बोझ तुम मुझसे कहे बगैर
मिरे काँधों पर कर गए स्थानांतरित

और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए...


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

M VERMA का कहना है कि -

दीपक की कविता धारदार होती है और उनकी कविताओं में सोन्धी गन्ध होती है माटी की.
बहुत सुन्दर कविता

manu का कहना है कि -

हरकुलिस की तरह....

.............

...मेरे कन्धों पर, कर गए स्थानांतरित................



बहुत असरदार लगी ये लाइन...

rashmi ravija का कहना है कि -

और आज तुम लटके मिले हो फाँसी पर
मगर फिर भी शहीद ना बन पाए...
बहुत ही आक्रोशपूर्ण रचना...सच्चाई बयाँ करती हुई ... मन उद्वेलित कर गयी.

अपूर्व का कहना है कि -

एक कृषि-प्रधान रहे देश मे कृषि के प्रति उपेक्षा और मूल्यक्षरण को दर्शाती करारी रचना...कविता एक युवा के हताशा, रोष, दुख और स्वप्नभंग को ही प्रतिध्वनित नही करती..वरन्‌ उस एक सपने की असमय मृत्यु की कहानी भी कहती है..जो बदलते युग के उपभोक्तावा्दी और चमक-दमक भरे समय के बीच भी अपनी पारंपरिक मगर लुप्तप्राय मूल्यों के साथ किन्ही उम्मीद भरी आँखों मे अपनी जगह बनाये रखना चाहता था..कुछ अच्छॆ बिंब भी कविता के मूलभाव को और सशक्त तरीके से संप्रेषित करते हैं
जैसे एक यह..

खुशियाँ फिसलती गयीं
कभी अचार के तेल में सनी चम्मच की तरह

रंजना का कहना है कि -

गहन मार्मिक भाव मन को छूकर झकझोर गए....

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर प्रभावशाली रचना...

स्वप्निल तिवारी का कहना है कि -

Are deepak bhai abhi tak aapki laghu katha padh raha tha..abhi kavita padhi..bahut zordar hai..bahut alag tareeke se baat kahi..

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही गहरे भाव लिए हुए है ये कविता

vandana gupta का कहना है कि -

bahut hi gahanta bhari hai.........ek katu sach ko kavita ke madhyam se kahne ki kala mein deepak ji mahir hain.

Anonymous का कहना है कि -

दीपक जी की कविता हमेशा ही अलग पहचान लिए होती हैं. नए शब्दों का प्रयोग वे अपनी रचना में बखूबी करते हैं.बहुत बहुत बधाई मार्मिक कविता को रचने के लिए.

दिपाली "आब" का कहना है कि -

kavita mein ek karaarapan hai, its somethinng different..bahut asardaar rachna.. Badhai

Bhawna का कहना है कि -

मार्मिक कविता

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