प्रतियोगिता की नौवीं कविता हिन्द-युग्म पर लम्बे अरसे से सक्रिय प्रदीप वर्मा की है।
पुरस्कृत कविताः कुछ नहीं होना
दिन भर
पीछे लगी रहती है
कुछ बातें
कुछ बातें
परेशां करती रहती हैं
दिन भर
दिन भर
कहीं-कहीं से
कुछ गुम गया-सा
लगता है
ढूँढ़ता रहता हूँ
गुम गए कुछ को
यहाँ-वहाँ
दिन भर
खाली दिन
खाली मन
खाली कागज़-सा
बीत जाता है
कुछ नहीं होना
हमेशा बना रहता है
कुछ नहीं होना
कभी मिटता नहीं
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुंदर भावपूर्ण रचना..प्रदीप जी बधाई
हमारी शहरी व्यस्त जिंदगी किसी ’जीरो-सम-गेम’ की तरह बीतती रहती है..जिसका बीजगणित दिन भर के ’धन’ को ’ऋण’ के साथ संतुलन बनाये रखने मे खर्च होता रहता है..
और दिन के अंत मे हाथ क्या रह जाता है?..एक खाली-पन
खाली दिन
खाली मन
खाली कागज़-सा
बीत जाता है
बढ़िया कविता!
सही कहा आपने...कुच नही होना बना रहता है..सुन्दए रचना के लिए प्रदीप जी बहुत-बहुत बधाई!
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