फरवरी 2010 की यूनिकवि प्रतियोगिता की पाँचवीं कविता मंजू भटनागर 'महिमा' की है। मंजू भटनागर की कविताएँ इससे पहले काव्य-पल्लवन के माध्यम से प्रकाशित होती रही हैं। लेकिन यह पहला मौका है जब इनकी कविता यूनिकवि प्रतियोगिता के शीर्ष 10 में चुनी गई है। मंजू भटनागर गुजरात की प्रगतिशील कवयित्री व्यंग लेखिका एवं अनुवादिका हैं। इनका जन्म 30 जुलाई 1948 को कोटा (राजस्थान) में हुआ। ये एम॰ ए॰ फिल हैं तथा कई साहित्यिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। 'शब्दों के देवदार' और 'बोनसाई संवेदनाओं के सूरजमुखी' आप के प्रकाशित काव्य-संग्रह हैं। साहित्यालोक ने आपको डॉ. पी.सी. शर्मा काव्य पुरस्कार देकर सम्मानित किया है।
पुरस्कृत कविताः माँ अब लौट चलें
मैं जानती हूँ माँ,
कि तुम मुझे बहुत प्यार करती हो।
तभी तो यहाँ आई हो।
माँ! इस दुनिया में ,
जहाँ तुम्हें सदैव अपने,
औरत होने का कर्ज़ चुकाना पड़ा है,
अपनी इच्छाओं को सुलाना पड़ा है,
हर पल इस अहसास को जीवित रखना पड़ा है
कि तुम एक लड़की हो/ एक औरत हो
तुम पुरूष की अनुगामिनी हो,
तुम एक भोग्या हो,खर्चे की पुड़िया हो।
मै जानती हूँ माँ,
जब तुम पैदा हुई थीं,
तब थाली नहीं बजी थी।
तुम्हारे होने की खबर ,
शोक सभा में तब्दील हो गई थी।
तुम्हारी दादी ने कहा था पिता से,
’खर्चा करने को तैयार हो जा,
अभी से बचाना शुरू कर,’
यही बात मेरी दादी ने भी कही थी,
मेरी बड़ी दीदियों के जन्म पर
क्या लड़के के पैदा होने में दर्द नहीं होता?
क्या लड़के को पालने में खर्च नहीं होता?
जानती हूँ माँ!
कितना सहा है तुमने अपने वक्ष पर
समाज के कटु-व्यंग्यों के तीरों को।
इसीलिए
तुम आज यह सब कर रही हो,
तुम चाहती हो कि मुझे वह सब न झेलना पड़े
जो तुमने और दीदियों ने झेला है।
तुम चाहती हो कि मेरा जन्म मातम के माहौल मे न हो,
इसीलिए तुम यहाँ आई हो न माँ?
पिता की आँखों में भी ,
मुझे यही कातरता नज़र आ रही है\
तुम्हारी आँखों में तैरते अनकहे शब्दों के कण
तुम्हारे चेहरे की उदासी,
बार-बार सबकी निगाहें बचा,
पेट पर अपना स्नेह भरा स्पर्श देना,
बार-बार प्रभु से क्षमा-याचना,
मुझसे बार-बार माफी माँगना,
यह जता रहा है कि
माँ, तुम मुझसे कितना प्यार करती हो।
मैं, तुम्हारी बेबसी को समझ रही हूँ,
यह भी जानती हूँ कि तुम यहाँ,
आई नहीं , लाई गई हो
तुम्हें बाध्य किया है इस जग ने,
तुम्हारे अनुभवों और तकलीफों ने,
पर, तनिक सोचो माँ!
डरो नहीं,मैं उतनी कमज़ोर नहीं,
जो इस दुनिया का सामना नहीं कर पाऊँगी,
मुझे बस एक बार–बस एक बार,
इस धरती पर आने तो दो माँ,
मैं विश्वास दिलाती हूँ ,
मैं तुम्हें इस तरह घुट-घुट कर मरने नहीं दूँगी
मैं औरतों को एक नई सोच दूँगी।
उनकी आँखों में नए सपने दूँगी।
तुम्हारी कोख में रहकर,
मैंने तुम्हारी वेदना को समझा है, जाना है।
तुम्हारी हर सोच, तुम्हारा हर आक्रोश
तुम्हारी बेचैनी, तुम्हारी हर बेबसी को
जिसे तुमने महसूसा है,
मैं वाणी दूँगी
बस! एक बार--- थोड़ा सा विद्रोह कर दो,
मुझे तुम्हारी कोख का कर्ज़ चुकाने दो माँ,
लौट चलो माँ, यहाँ से एक बार
मैं जानती हूँ माँ!
तुम मुझे बहुत प्यार करती हो।
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
8 कविताप्रेमियों का कहना है :
उत्कृष्ट रचना. यहाँ प्रकाशन के लिए आभार.
भावुक मार्मिक सुन्दर रचना...
स्त्री की पीड़ा को इतनी बारीकी से एक स्त्री ही समझ और व्यक्त कर सकती थी .
इस सुन्दर रचना के लिए साधुवाद !!
माँ की कहानी एक बेटी की ज़ुबानी..अत्यन्त ही सुंदर और भावपूर्ण रचना..अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत बधाई
यह भी जानती हूँ कि तुम यहाँ,
आई नहीं , लाई गई हो
तुम्हें बाध्य किया है इस जग ने,
तुम्हारे अनुभवों और तकलीफों ने,
आँखें भर आई पढ़ते पढ़ते उम्दा रचना,,,,,,,,,,
इतनी मार्मिक रचना जो लोगों को झक्झोर कर रख दे,उसे प्रकाशित करने के लिए हिन्दयुग्म का आभार! अजन्मी बेटी के मां के साथ करुणायुक्त संवाद को रचने के लिए बहुत-बहुत बधाई!
रचना के साथ संवेदंशील होने के लिए और सराहना करने के लिए आप सबका तहे-दिल से धन्यवाद प्रेषित करती हूं। आशा करती हूँ कि भविष्य में भी आप सबका प्रोत्साहन और समीक्षात्मक सहयोग मिलता रहेगा।
It’s really a nice and helpful piece of information. I’m glad that you shared this helpful info with us. Please keep us informed like this. Thanks for sharing.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)