प्रतियोगिता की दसवें स्थान की कविता प्रियंका चित्रांशी की है। ’प्रिया’ नाम से कविताएं लिखने वाली प्रियंका की कविताएं इससे पूर्व भी हिंद-युग्म पर प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले अगस्त माह की यूनिप्रतियोगिता मे इनकी कविता ने तेरहवाँ स्थान प्राप्त किया था।
पुरस्कृत कविता: जज़्बात का रिसेशन
सोचा था
हाँ तब
तू साथ था जब
तू बाती और
मै मोम
या फिर यूँ
मैं मोम
तू बाती बन
एक लौ जलाकर
प्रेम की
रोशन करेंगे
घरौंदा अपना
लेकिन अब
वक़्त बदला और
सोच भी
तू तिजारत की दुनिया की
नामचीन हस्ती
मैं ख्यालों की दुनिया में
खोई हुई सी
तू कतरा-कतरा
जल रहा है
जगमगा रहा है
तप कर कुंदन सा हो गया है
बाज़ार में खूब चल रहा है
मै रफ्ता-रफ्ता पिघल रही हूँ,
मोम जो हूँ....
पिघल कर भी नहीं मिटती
मेरे वजूद पर
तेरा साया जो रहता है
मै न ! पिघल कर
मोम नहीं रहती
पानी हो जाती हूँ
जिधर का रुख करती हूँ
रास्ता मिल जाता है
कोई भी रंग ..
आसानी से चढ़ जाता है
अब न चेहरे पर
भाव नहीं आते
उनको ढाँपने का
गुण जो आ गया है
तेरे तजुर्बे ने
मोम से पानी बना दिया
कई बार बनी हूँ बर्फ सी
लेकिन पिघल कर फिर
मोम हुई पानी नहीं.
शुक्रिया !
शुक्रिया उस साथ का
जिसने
दुनिया के संग
जीना सीखा दिया
मेरा असली रंग चुरा
ज़माने का रंग चढ़ा दिया
कल खबर आई थी तेरी दुनिया से
सेंसेक्स की उथल-पुथल की
चेहरा भी देखा था टी. वी. पर
आते-जाते रंगों को पढ़ लिया मैंने
सच! तुमने कुछ नहीं सीखा
फिर भी ख़बरों में रहते हो ज़माने की
एक सवाल पूछना था तुमसे
हाँ ! तुम्हारी भाषा में
गर जज़्बात में रिसेशन हो ........
तब क्या प्रोडक्ट ब्रांड बन जाता है?
पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता की तारीफ़ के लिए मेरे पास प्रिया जी जैसे ना जज़्बात हैं ना शब्द
"गर जज़्बात में रिसेशन हो ........
तब क्या प्रोडक्ट ब्रांड बन जाता है?"
झझकोर देने वाले प्रश्न के साथ कविता का समापन.
कवियत्री और उनकी लेखनी को सादर वंदन.
बस यही कहूँगी, जो शायद तुम्हें कोई अर्थ दे जाये -
आंसू हर पल आंखों में नहीं तैरते,
लम्हा-दर-लम्हा -
जब्त हो जाते हैं,
विरोध का तेज बन जाते हैं.........
तुमने अपनी गरिमा में,
आंसुओं को बेमानी बना डाला,
अच्छा किया,
मैं वक्त की नजाकत का पाठ ,
भला कैसे सीख पाती!
तुमने मेरे वजूद की रक्षा में
ख़ुद को दाव पर नहीं लगाया ,
अच्छा किया,
मैं अपनी ज़मीन कहाँ ढूँढ पाती !
तुमने मेरे प्रलाप में चुप्पी साध ली,
अच्छा किया,
मैं पर्वत-सी गंभीरता कैसे ला पाती!
तुमने जो भी किया,
अच्छा किया,
मैं तुम्हारे पीछे भागना कैसे छोड़ पाती
priya....behad khoobsoorat or dil me utar jaane vaali kavita hai ..padhkar bahut khushi hui or ye jaan kar bhi k tumhari kavita ne ek achha sthaan prapt kiya .badhaain or bahut saari shubkaamnaye for ur future... u knw maine wrong way par comment kar di thi jaldi me :)...
वाह..भावनाओं का आधुनिकरण पर एक बेहतरीन प्रस्तुति..प्रेम की एक बेहतरीन अभिव्यक्ति..प्रियंका जी बेहद खूबसूरत भाव पिरोए है आपने..बहुत बढ़िया लगी कविता...बधाई हो!!
Bahut hi khoobsurat kriti hai Priya, bahut hi khoobsurti se shabdon ko piroya hai.
Aur accha sthaan praapt karne ke liye badhai.... :)
बदलते वक़्त में एहसासों और जज्बातों के प्रति इंसान के बदलते नज़रिए पर बेहतरीन तरह से किया हुआ कटाक्ष... रिश्तों कि तिजारत और जज्बातों का रिसेशन के बीच आज की आधुनिक दुनिया के सच को परोसती हुई कृति दिल को छू गयी...
आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने न सिर्फ मेरी कृति को सराहा बल्कि खूबसूरत शब्दों के साथ उत्साहवर्धन भी किया ..... साथ निर्णायकमंडल को भी नमन ...........साथही शुक्रगुजार हूँ शैलेश भारतवासीजी की जिन्होंने एक मंच प्रदान किया और नए और युवा लोगो को एक दिशा प्रदान की .
सादर और सप्रेम
प्रिया
हिन्दीयुग्म ने महिला बर्ग को अच्छा फसाया हे .....
सुमित
दिल्ली
बहुत ही अच्छा लिखा है जी आपने..
बधाई..
बहुत ख़ूब
जज़्बात का कुशल प्रबंधन कोई आपसे सीखे..एक बात तय है कि जब तक हिन्दी जगत में इस तरह की समृद्ध रचनाएं मौजूद हैं, यहां रिसेशन कभी नहीं आ सकता :)
कविता पुरस्कृत होने पर बहुत-बहुत बधाई
हैपी ब्लॉगिंग
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)