फटाफट (25 नई पोस्ट):

Saturday, October 24, 2009

आज कुछ भी डरा सकता है


युवा कवि प्रमोद कुमार तिवारी की चार कविताएँ (ठेलुआ, दीदी, भीड़ और सितुही भर समय) प्रकाशित हो चुकी हैं। आज पढ़िए- 'डर'

डर

अजीब शब्द है डर
आज तक मेरे लिए अबूझ
बहुत डरता था मैं सांप, छिपकली और बिच्छु से
याद आता है- छिपकली पकड़ने को उत्सुक तीनवर्षीय भाई
और खाट पर चढ़कर काँपते हुए
उसे मेरा डांटना
अब नहीं डरता मैं जानवरों से
पर समझदार होना शायद
डर के नए विकल्प खोलना है
मेरे गाँव का अक्खड़ जवान भोलुआ
जिसने एक नामी गुंडे को धो डाला था
कल मरियल जमींदार के जूते खाता रहा
उसका बाप कह रहा था
समझ आ गई भोलुआ को
अब कोई डर नहीं।

बहुरूपिया है डर
डराते थे कभी
चेचक, कैंसर और प्लेग
आज मौत पर भारी बेरोजगारी
बहुत डर लगता है
रोजगार कॉलम निहारतीं सेवानिवृत पिता की आखों से।
आज कुछ भी डरा सकता है
एक टीका, टोपी, दाढ़ी
यहाँ तक की सिर्फ़ एक रंग से भी
छूट सकता है पसीना
कभी सोचा भी न था
पर सच है मुझे डर लगता है
बेटी के सुन्दर चेहरे से
और हाँ! उसके गोरे रंग से भी।

किसी ने बताया डर से बचना चाहते हो
तो डराते रहो दूसरों को।
पर मैंने देखा एक डरानेवाले को
जिसने गोली मार दी
अपनी जानू प्रेमिका को
डर के कारण।
कहते नहीं बनता
पर जब भी अकेले होता हूँ
बहुत डर लगता है खुद से
एक दिन मैं देख रहा था
अपना गला दबाकर
यह भी जाँचा था
कि मेरी उँगलियाँ आँखें फोड़ सकती हैं या नहीं
और उस दिन अपने हाथों पर से भरोसा
उठ गया।
साजिश रचती हैं सासें मेरे खिलाफ़
लाख बचाने के बावजूद
पत्थर से टकरा जाते हैं पैर।
अब मैं किसी इमारत की छत पर या
पुल के किनारे नहीं जाता
मेरे भीतर बैठा कोई मुझे कूदने को कहता है
तब मैं जोर-जोर से कुछ भी गाने लगता हूँ
या किसी को भी पकड़ बतियाने लगता हूँ
पर सोचता हूँ क्या पता किसी दिन
कहने की बजाय वो धक्का ही दे दे

एक दिन मैंने उससे पूछा
किससे डरते हो
मार से
भूख से
मौत से
किससे डरते हो
बहुत देर की खामोशी के बाद
आई एक हल्की सी आवाज
मुझे बहुत डर लगता है
डर से!!!

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

8 कविताप्रेमियों का कहना है :

ब्लॉ.ललित शर्मा का कहना है कि -

छ्ठ पूजा की बधाई

neelam का कहना है कि -

बहुत डर लगता है
रोजगार कॉलम निहारतीं सेवानिवृत पिता की आखों से।

filhaal to yahhhhhhhhhhhiiii.

aap waakai bahut achcha likhte hain .

neelam का कहना है कि -

पर समझदार होना शायद
डर के नए विकल्प खोलना है

सामान्य भाषा का असामान्य अर्थ बहुत बढ़िया ,संवेदनाओं से लबरेज़ अतुकांत या अकविता

राकेश कौशिक का कहना है कि -

अच्छी संवेदनशील, सम्पूर्ण रचना जो सोचने और चिंतन करने के लिए बाध्य करती है. बधाई.

rachana का कहना है कि -

brti ka sunder chehra aye pita ki aankhe bahut sunder likha hai dar ko samjhne ki nai disha
saader
rachana

संगीता पुरी का कहना है कि -

बहुत संवेदनशील रचना !!

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

डर का बड़ा ही विस्तृत स्वरूप है किसी ना किसी रूप में आता रहता है आज के आधुनिक परिवेश में इंसान के सामने जहाँ इंसान अपने दो पहर की रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है..बेहद उम्दा रचना...धन्यवाद

Harihar का कहना है कि -

जबर्दस्त रचना !

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)