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Friday, October 23, 2009

भ्रष्टाचार एक कल्पतरु है


कविता रावत पहली बार यूनिकवि प्रतियोगिता के माध्यम से प्रकाशित हो रही हैं। 8 जून, 1968 को भोपाल में जन्मी और यहीं निवास करने वाली कविता ने एम.कॉम. एवं कम्प्यूटर ट्रेनिंग जैसी प्रोफेशनल डिग्रियाँ अर्जित की हैं। भारत के मध्य प्रदेश राज्य की राजधानी झीलों की नगरी भोपाल में राज्य शिक्षा केन्द्र में शिक्षक प्रशिक्षण प्रकोष्ठ में कार्यरत। ये अपनी कविताओं में आस-पास की सामाजिक परिवेश की घटनाओं, परिदृश्यों और मानव मन में उठने वाली सहज भावनाओं व विचारों को सरलतम शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं। इनका उद्देश्य साधारण जन मानस तक लेखन के माध्यम से सहज रूप से पहुँच कर समाज में व्याप्त बुराइयों से उनकों दूर कर उन्हें कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करना है। इनकी कविता ने चौदहवाँ स्थान बनाया है।

पुरस्कृत कविता- आज का शिष्टाचार

सुना होगा आपने कभी एक कल्पतरु हुआ करता था
जिसके तले बैठ मानव इच्छित फल को पाता था
इच्छा उसकी पूर्ण होती, वह सुख-चैन से रहता
जो भी इसके तले बैठता, वही ख़ुशी से झूमता
क्या आज भी कहीं ऐसा वृक्ष मिल पायेगा?
जो मनोवांछित फल हमको दे सकेगा!
आप कहोगे कल्पतरु अब नहीं, जो सपने करे साकार
लेकिन वह वृक्ष व्याप्त है, नाम है उसका भ्रष्टाचार
यह ऐसा वृक्ष है जिसकी शीतल है छाया
जो भी तले बैठे इसके, उसी ने पायी माया
इसकी जड़ें होती गहरी, यह उखड़ नहीं पाता
जो भी यत्न करता वही समझो है पछताता
जो भी जड़ें जकड़ता इसकी, इच्छित फल वह पाता
जो विमुख रहता इससे, वह खाली ढोल है बजता
आज का कामधेनु है यह जिसका दूध है काला
जो सर्वप्रिय है आज, उसका नाम है घोटाला
आत्मा तन से निकलती, यह धर्मशास्त्र कहता
भ्रष्टाचार व्याप्त रहेगा यही आधुनिक शास्त्र कहता
विराट कल्पतरु का रूप ले चुका यह भ्रष्टाचार
इसलिये लोग कहते है इसे आज का शिष्टाचार।

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8 कविताप्रेमियों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

विराट कल्पतरु का रूप ले चुका यह भ्रष्टाचार
इसलिये लोग कहते है इसे आज का शिष्टाचार।
बिलकुल सही कहा है। कल्पतरु की तरह ही है भ्रश्ताचार क फैलाव् कविता जी को बहुत बहुत बधाई

राकेश कौशिक का कहना है कि -

आलोचना करने का सही तरीका है कि कविता को समग्र रूप में देखा जाये इसलिए कविता ठीक है. जो बात कवियत्री कहना चाहती थीं कह सकी हैं. लेकिन गद्य है या पद्य मेरे लिए भी प्रश्न है. शायद पद्य जिस पर कवियत्री खरी नहीं उतरतीं.

राकेश कौशिक का कहना है कि -

आलोचना करने का सही तरीका है कि कविता को समग्र रूप में देखा जाये इसलिए कविता ठीक है. जो बात कवियत्री कहना चाहती थीं कह सकी हैं. लेकिन गद्य है या पद्य मेरे लिए भी प्रश्न है. शायद पद्य जिस पर कवियत्री खरी नहीं उतरतीं.

मनोज कुमार का कहना है कि -

मैं निर्मला जी से इत्तेफाक रखता हूं। इस कल्पतरू से भगवान बचाए। आह से जो उपजे वही कविता है, वरना हम तो तर्क-वितर्क के साथ गद्य लिखने लगते हैं। आपकी कविता मुझे अच्छी और सच्ची लगी। बधाई।

राकेश कौशिक का कहना है कि -

आह से जो उपजे वही कविता है, चाह से जो उपजे वह भी कविता है आदि (मन के विभिन्न भाव).

तर्क को वितर्क बोलकर शायद हम कविता को छोड़कर एक दूसरे पर टिप्पडी करने लगे हैं. क्या यह उचित है?

राकेश कौशिक का कहना है कि -

मुझे ना गद्य से परहेज है ना पद्य से और ना ही किसी शब्द से जो आम प्रचलन में हो "फतवानुमा" पढ़कर भी अचंभित नहीं हुआ था. मेरे विचार से प्रमुख उद्देश्य अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का हो जिसमें कवियत्री पूर्णत: सफल हुई हैं. मैं अपनी राय उनपर थोप नहीं रहा हूँ, मेरे विचार में यह एक पद्य है जो और अच्छी हो सकती थी. कवियत्री के लिए सुझाव मात्र है, उनका दिल दुखता है या बुरा लगता है तो में अपने शब्द वापस लेता हूँ.

Manju Gupta का कहना है कि -

कल्पतरु का प्रतीक बिम्ब बडिया लगा .

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

कल्पतरु का रूप बदल गया है आज भ्रष्ट बन जाओ भ्रष्टाचार अपनाओ देखो धीरे धीरे सभी भौतिक सुखो से लबरेज होने लगेंगे आप..कलयुग का कल्पतरु यहीं है...सुंदर रचना..बधाई

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