
पुरस्कृत कविता- आज का शिष्टाचार
सुना होगा आपने कभी एक कल्पतरु हुआ करता था
जिसके तले बैठ मानव इच्छित फल को पाता था
इच्छा उसकी पूर्ण होती, वह सुख-चैन से रहता
जो भी इसके तले बैठता, वही ख़ुशी से झूमता
क्या आज भी कहीं ऐसा वृक्ष मिल पायेगा?
जो मनोवांछित फल हमको दे सकेगा!
आप कहोगे कल्पतरु अब नहीं, जो सपने करे साकार
लेकिन वह वृक्ष व्याप्त है, नाम है उसका भ्रष्टाचार
यह ऐसा वृक्ष है जिसकी शीतल है छाया
जो भी तले बैठे इसके, उसी ने पायी माया
इसकी जड़ें होती गहरी, यह उखड़ नहीं पाता
जो भी यत्न करता वही समझो है पछताता
जो भी जड़ें जकड़ता इसकी, इच्छित फल वह पाता
जो विमुख रहता इससे, वह खाली ढोल है बजता
आज का कामधेनु है यह जिसका दूध है काला
जो सर्वप्रिय है आज, उसका नाम है घोटाला
आत्मा तन से निकलती, यह धर्मशास्त्र कहता
भ्रष्टाचार व्याप्त रहेगा यही आधुनिक शास्त्र कहता
विराट कल्पतरु का रूप ले चुका यह भ्रष्टाचार
इसलिये लोग कहते है इसे आज का शिष्टाचार।