दिनेश कुमार शुक्ल की कविताएँ कविता की बिलकुल नई ज़मीन तैयार करती हैं, जहाँ पर खड़ा होकर पाठक भी सच का आर-पार देख पाता है। पिछले सप्ताह हमने कवि के संग्रह 'कभी तो खुलें कपाट' से चंद कविताएँ आपको पढ़वाई थी, आज हम इनके नवीनतम कविता-संग्रह 'आखर-अरथ' से कुछ कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं। दिनेश शुक्ल कविताओं के माध्यम से आम आदमी के प्रति समाज, सभ्यता और सरकार द्वारा की जा रही साजिशों के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हैं। आप खुद देखिए-
4. वह जगह
जा रही है लहर
पीछे छूटता जाता है पानी
लहर में पानी नहीं
कुछ और है जो जा रहा है
शब्द में टिकती नहीं कविता
न कविता में समाता अर्थ
थमता नहीं संगीत ध्वनि में
रंग रेखा रूप में रुकता नहीं है चित्र
जिया जितना
सिर्फ़ उतना ही नहीं जीवन,
आ रहा संज्ञान में जो
सिर्फ़ उतना ही नहीं सब कुछ
यहीं बिल्कुल आस-पास है कहीं वह जगह--
जहाँ अपनी सहज लय में गूँजता संगीत
होते हैं तरंगित अर्थ कविता के,
जहाँ साकार होते हैं सभी आकार अपने आप
जहाँ इतनी सघन है अनुभूति
जैसे गर्भ माता का
अँधेरी रात का तारों भरा आकाश
या फिर अधगिरी दीवार पर
फूले अकेले फूल की पीली उदासी
सघनता भी जहाँ जाकर विरल हो जाती!
किसी को दिख जाए शायद 'वह जगह'
वह जगह है आदमी के बहुत पास
कभी शायद कह सके कोई-
'यह रही वह जगह
ठीक बिल्कुल यहाँ, उँगली रख रहा हूँ मैं जहाँ!'
5. वैदर्भी रीति
अब मास्को के ऊपर
तैर रहा होगा सप्तर्षि मंडल
हवाई जहाज़ों के साथ
अब तुमने बन्द की होंगी
खिड़कियाँ रंगून में
बताना तो
क्या नाम है अब वियतनाम का
स्कूलों में क्या
माली अब भी तैयार करते हैं
फूलों की क्यारियाँ
बिल्कुल सच्ची है ख़बर कि दुबारा
फाँसी दी जाएगी भगत सिंह को
लाखों विचार
मस्तिष्क के अन्धकार में
टिमटिमा रहे हैं
इस अमावस की रात
मुझे लम्बी यात्रा पर जाना है
पढ़ना तुम
कल सुबह के अख़बार में
विदर्भ के किसानों ने
शुरू कर दिया है
एक बिल्कुल ही नयी
कविता-सी पृथ्वी का निर्माण
6. नया धरातल
नयी भूमि थी नया धरातल
ताँबे का जल जस्ते का फल
काँसे की कलियों के भीतर
चाँदी की चाँदनी भरी थी
पारे का पारावार मछलियाँ सोने की
था मत्स्य न्याय का लोहे जैसा अहंकार
निर्मल अकाट्य था
अष्टधातु का तर्क और
मरकतमणि के गहरे प्रवाल के जंगल थे,
जंगल में आँखें रह-रहकर जल उठती थीं फास्फोरस की
सिलिकन के मस्तिष्क में छुपी बुद्धि
शहर के स्कूलों में अपना चारा खोज रही थी
और टीन के किट-पतंग-मक्खियाँ-चींटे
चाट रहे थे नमक रक्त का
शोरे के पहाड़ थे जिनमें दबी पड़ी अभिव्यक्ति
दहकती थी जैसे बारूदी चुप्पी
अभ्रक की चट्टानों के थे सिद्धपीठ
पर्वत की ऊँची चोटी पर
गन्धक के बादल सोते थे
पत्थर की आँखें थीं उस युग के भाष्यकार की
नीलम की पुतलियाँ अचंचल
सधी हुई एकाग्र लक्ष्य पर
आखेटक-सी
इंटरनेट के राजमार्ग पर
शोभायात्रा निकल रही थी तत्त्वज्ञान की,
अर्थशास्त्र के सूचकांक में संचित था सारा संवेदन
राजनीति थी गणित, गणित में समीकरण थे
ज्यों ही मानुषगन्ध भरा कोई विचार
उस देश-काल में करता था संचार
घंटियाँ ख़तरे की बजने लगती थीं,
सब खिड़कियाँ और दरवाज़े
अपने आप बन्द जो जाते
चक्रव्यूह से बचकर कोई
बाहर नहीं निकल सकता था
आभ्यन्तर में फिर भी कोई
चिड़िया पिंजारा तोड़ रही थी
धुक् धुक् धुक् धुक्
धुक् धुक् धुक् धुक्
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
5 कविताप्रेमियों का कहना है :
जिया जितना
सिर्फ़ उतना ही नहीं जीवन,
आ रहा संज्ञान में जो
सिर्फ़ उतना ही नहीं सब कुछ......
...........
बहुत कुछ है इसके अन्दर,जिसकी परतें शनैः-शनैः खुलती हैं
'वह जगह'
लहर में पानी नहीं और भी बहा जा रहा है--
'वह जगह' संवेदना तलाशती है
आदमी के बहुत पास --एक उँगली भर जंगह भी नहीं मिलती
-----
'वैदर्भी रीति'
नए सपने दिखाती है
नई सुबह की आश जगाती है
------
'नया धरातल'
चाहे जितना भी हम पदार्थ युग में चले जांय
चाहे जितना भी चक्रव्युह गढ़ लें कि मानवता प्रवेश न कर पाए
एक चिड़िया
पिंजड़ा तोड़ती
जरूर मिलेगी
धुक् धुक् धुक्
धुक् धुक् धुक्
---तीनों कविताएँ मुझे बहुत पसंद आयीं
जो समझा वह लिख दिया
जो ना समझा
उसे
श्री दिनेश कुमार शुक्ल जी स्वयम् समझाते तो धन्यभाग्य समझता।
एक से ज्यादा बार पढ़कर ही समझी सकती हैं इसलिए कवितायेँ आम आदमी की समझ से परे हैं.
शब्द में टिकती नहीं कविता
न कविता में समाता अर्थ
थमता नहीं संगीत ध्वनि में
रंग रेखा रूप में रुकता नहीं है चित्र
सुंदर शब्दों और विचारों के सजी सुंदर सुंदर पंक्तियाँ..बढ़िया कविता..धन्यवाद!!!
Woh jagah
Wahin hai
Jana se
Ye kavita nikli hai.
Uspar unglee nahi rakhi ja saktee,
Kyon ki Jagal aslee hai
Lekin unglee naklee hai.
Is shorbhayatra ki jai hoo,
Kavitayein kaljaee hoo!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)