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Tuesday, October 13, 2009

उस दिन सूर्यास्त भी नहीं होता


हिन्द-युग्म समय-समय पर समकालीन कविता के अग्रदूतों और इसी पंक्ति में आगे-पीछे चलने वाले कवियों से अपने पाठकों का साक्षात्कार कराता रहता हैं। आज एक लम्बे समय अंतराल के बाद हम प्रतिष्ठित कवि दिनेश कुमार शुक्ल की कुछ कविताएँ लेकर उपस्थित हैं।


1. कभी तो खुलें कपाट

दिनेश कुमार शुक्ल

हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि।

जन्मः वर्ष 1950 में नर्वल ग्राम, जिला कानपुर (उ॰प्र॰) में।
शिक्षाः एम॰एस-सी, डी॰ फिल॰ (फ़िज़िक्स), इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
प्रकाशित रचनाएँ : कविता-संग्रह--'समयचक्र' (1997), 'कभी तो खुलें कपाट' (1999), 'नया अनहद' (2001), 'कथा कहो कविता' (2005), 'ललमुनिया की दुनिया' (2008) और 'आखर अरथ' (2009)।
काव्यनुवाद-- पाब्लोनेरुदा की कविताएँ (1989)। कुछ आलोचनात्मक गद्य, समीक्षाएँ, टिप्पणियाँ और निबंध।
सम्मान: 'ललमुनिया की दुनिया' के लिए वर्ष 2008 का केदार सम्मान
सम्पर्कः ए-201, इरवो क्लासिक अपार्टमेंट
सेक्टर-57, गुड़गाँव-12003 (हरियाणा)
कहना सुनना
और समझ पाना
संभव हो
इसीलिये तो
रची गई थी सृष्टि

इसीलिये
छत की मुंडेर तक
आतीं आम-नीम की डालें
झाँक सकें आँगन में
जानें
घर में बंद बहू का
सुख-दुख

इसीलिये तो आते झोंके
बहती हवा, झूमती डालें
झरते हैं पत्तर आँगन में,
दुख से लड़कर जब थक जाती
उन पत्तों पर लिखती पाती
बहू,
हवा फिर उन्हें उड़ाती
उसके बाबुल तक ले जाती

इसीलिए आती है कविता
भीतर पैठे
उन जगहों को छुए
जहाँ तक
नहीं पहुँच पाती हैं डालें
नहीं पहुँच पाता प्रकाश
या पवन झकोरा
संदेशों के पंछी भी
पर मार न पाते
जिन जगहों पर

घुस कर गहन अंधेरे में भी
सभी तरह के
बन्दीगृह की काली चीकट दीवारों पर
कविता भित्तिचित्र लिखती हैं

लोहे के हों
या तिलिस्म के
सारे वज्र-कपाट तोड़ती
इसीलिये
धारा जैसी आती है कविता
प्रबल वेग से।

2. अग्नि


और इस 'अग्नि' ने ही दिनेश कुमार शुक्ल की कविता की ओर मुझे आकृष्ट किया। आश्वस्त हुआ कि जो अग्नि निराला-नागार्जुन से होती हुई मुक्तिबोध और धूमिल में कल तक जल रही थी वह आज भी बुझी नहीं है। बीच में थोड़ी शंका होने लगी थी। कविता पर कला का शौक ऐसा चढ़ा कि कवि के शब्दों में 'सब कुछ था, बस अग्नि नहीं थी।'

लेकिन कविता का महत्व केवल इतना नहीं है कि उसमें अग्नि बची रह गई। वह अग्नि किस तरह रची गई है, कवि-कर्म का यह पक्ष कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। अग्निवर्णी कवि आगे भी हो गए हैं और वे अंधाधुंध आग बरसा चुके हैं। आज शायद वे राख के रूप में ही याद आते हैं। दिनेश कुमार शुक्ल के लिए वह आदिम अग्नि है। उसकी ज़रूरत राजा की रसोई में भी है और यजमान के यज्ञकुंड में भी। रसोई से यज्ञकुंड तक दृश्यविधान के साथ वह आदिम अग्नि नाट्यायित की गई है। समस्त क्रिया-प्रयोग में एक क्लासिकी कसावट है। अंततः वह अग्नि उदर कन्दराओं से जिस तरह सहसा प्रकट होती है और दसों दिशाओं से गरजती हुई आगे बढ़ती है, वह काव्यनाट्य का उदात्त चरमोत्कर्ष है। अपनी परिणति में वह है अब 'पतित पावन अग्नि'।

---प्रो॰ नामवर सिंह
सब कुछ था
बस अग्नि नहीं थी

राजा की रसोई में
जावत् सामग्री थी
लगे थे वहाँ अन्न फल
मसालों के भूधराकार ढेर

घेर-घेर सागर से घसीट कर
लाये गये पीन पाठीन मीन
घी दूब सोम और मधु के
लबालब भरे कुण्ड

जुटे देश-देश के
रसोइये चतुर-सुजान
किन्तु सभी हैरान
अग्नि कहाँ चली गई?

यज्ञ का प्रस्तुत था
सारा सामान
बलिवेदी बलिपशु मंडप
हवनकुण्ड ऋचायें सामगान

सारे पुरोहित यजमान
आशंकित आतंकित
बेचैन परेशान
अग्नि कहाँ चली गई?

राजा ने हुक्म दिया
दौड़े आये गुणीजन
अग्नि की खोज में
लगाये गये गुणीजन

गुणियों ने आते ही
पटक दिये पर्वत पर पर्वत
पर चिंगारी के बदले
उड़े सिर्फ दो छींटे खून के--
अग्नि नहीं थी वहाँ

ज्वालामुखियों में तब
कूद पड़े अन्वेषक
बजबजा रहा था वहाँ
कुंभीपाक तमस् का--
अग्नि नहीं थी वहाँ

गुणीजन उड़े
और गये सूर्यलोक तक
सिर्फ चौंधियाती हुई
बर्फ की मरीचिका थी सूर्य में--
अग्नि नहीं थी वहाँ

राजा और सेना के
प्रचण्ड क्रोध में भी
घुसे अनवेषक
वहाँ सिर्फ डरी हुई
हिंसक कायरता थी--
अग्नि नहीं थी वहाँ

राजा दरबारी
सब परेशान हैरान
हतप्रभ थे गुणीजन
निष्फल था सारा विज्ञान
उनको
जरा भी नहीं था अनुमान
शताब्दियों से उन्हीं के आसपास
भूख बन कर
दहक रही थी अग्नि
लाखों उदर कन्दराओं में

राजा और दरबारियों के
बन्द थे कान
गरजती चली आ रही थी
उन्हीं को घेरती
दसों दिशाओं से

सचमुच चली आ रही थी अब
पतित पावन अग्नि।

3. वह दिन

तोड़ते तोड़ते
दुःख के पहाड़
आता है एक दिन
ऐसा
जब खेलने लगती हैं
आनन्द की लहरें
तुम्हारे आनन पर

पता नहीं कैसे
वे भाँप लेते हैं
तुम्हारी खुशी

और अधिक शीतल
हो जाती है
नीम की छाँव
और अधिक मुखर
हो उठते हैं
पीपल के पात,
उस दिन
गिलहरी बन कर
खुशी उतरती है
पेड़ से और
आ बैठती है
तुम्हारी गोद में
निःशंक,
बछिया चिटक कर
आती है तुम्हारे पास
और खेलने का
आग्रह करने लगती है
पता नहीं कैसे
भाँप लेते हैं
तुम्हारी खुशी
दुनिया के सारे
निरपराध जीव

तलवों से उठता है
धरती का संस्पर्श और
चढ़ता है ऊपर
मलय पवनान्दोलित
जल की तरह तुमको
तरंगित करता हुआ
छनता है गहरे
तुम्हारी आत्मा में

न उत्तेजना, न आवेग
न हड़बड़ी, न आशंका
धीर गंभीर गंगा की तरह
उस दिन बहता है
जीवन-प्रवाह

निःशंक चलते हो
उस दिन तुम
अपने पथ पर
सूर्य की तरह-
जब कभी
बहुत दिनों बाद

आता है ऐसा दिन
जैसे पेड़ों को
झकझोरती नहीं है
वसन्त की बयार
भरता है
आत्मा में निःशब्द
जैसे संगीत का निनाद
चकाचौंध करता नहीं
जैसे कन्दील का प्रकाश
जैसे माँ का दिया ज्ञान
नहीं करता आतंकित
जैसे शब्दाडम्बर
नहीं लगती मातृभाषा
ठीक उसी तरह
चिरपरिचित सा
आता है वह दिन
जब निरपराध लगने लगता है
सारा संसार

बहुत दिनों बाद
जिस दिन लौटते थे पिता
कलकत्ते से
उस दिन की तरह जब तब ही
आता है
ऐसा दिन कभी-कभी

वह दिन
हम संजो कर रख लेते हैं
अपने अंतरतम में--
कभी बीतता नहीं वह दिन
उस दिन सूर्यास्त भी नहीं होता।

(सभी कविताएँ कवि के ही काव्य-संग्रह 'कभी तो खुलें कपाट' से ली गई हैं)

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

इसीलिये
छत की मुंडेर तक
आतीं आम-नीम की डालें
झाँक सकें आँगन में
जानें
घर में बंद बहू का
सुख-दुख

बहुत बढ़िया भाव...सुंदर कविताएँ..
बधाई दिनेश जी..

Anonymous का कहना है कि -

इसीलिये
छत की मुंडेर तक
आतीं आम-नीम की डालें
झाँक सकें आँगन में
जानें
घर में बंद बहू का
सुख-दुख
वाह ! वाह ! वाह! गांव की याद दिला दी। बहुत भाव हैं आपकी कविता में दिनेश जी बधाई!

राकेश कौशिक का कहना है कि -

कभी तो खुलें कपाट:
इसीलिये
छत की मुंडेर तक
आतीं आम-नीम की डालें
झाँक सकें आँगन में
जानें
घर में बंद बहू का
सुख-दुख
विनोद जी और सुष्मिता जी के साथ मेरे मन को भी इन्ही पंक्तियों ने सबसे ज्यादा छुआ

वह दिन भी मनोहारी चित्रण है:
गिलहरी बन कर
खुशी उतरती है
पेड़ से और
आ बैठती है
तुम्हारी गोद में

अति सुंदर
बधाई

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

इसीलिये
छत की मुंडेर तक
आतीं आम-नीम की डालें
झाँक सकें आँगन में
जानें
घर में बंद बहू का
सुख-दुख.......वाह !

निर्मला कपिला का कहना है कि -

इसीलिए आती है कविता
भीतर पैठे
उन जगहों को छुए
जहाँ तक
नहीं पहुँच पाती हैं डालें
नहीं पहुँच पाता प्रकाश
या पवन झकोरा
संदेशों के पंछी भी
पर मार न पाते
जिन जगहों पर

घुस कर गहन अंधेरे में भी
सभी तरह के
बन्दीगृह की काली चीकट दीवारों पर
कविता भित्तिचित्र लिखती हैंबहुत सी पँक्तियाँ हैं दोनो कवितायों मे जो मन के अन्दर तक छू गयीं दोनो ही कवितायें लाजवाब हैं
दिनेश कुमार शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई और आपका धन्यवाद्

मनोज कुमार का कहना है कि -

जहां एक ओर इतनी श्रेष्ठ रचनाओं को पढ़ने का सुयोग देकर आप साधुवाद के हकदार हैं वहीं दूसरी ओर इन कविताओं को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिली।

Anonymous का कहना है कि -

दिनेश जी की कविता अग्नि मैं पहले ही पढ़ चुका था... आपने दो और कविताएं पढ़ने का अवसर दिया... बधाई... दिनेश जी का रचना संसार इतनी सहजता से मन में प्रवेश करता है जैसे ये स्वयं का विचार हो...
नाज़िम नक़वी

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

अग्नि
जब गरीब का पेट नहीं भरा तो राजा का यग्य किस काम का
करारा व्यंग्य

Ajay Bhaskar का कहना है कि -
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