मच्छ दोहा: ७ गुरु + ३४ लघु = ४१ मात्राएँ
जिस दोहे के चारों चरणों या दोनों पदों में ७ गुरु तथा ३४ लघु कुल ४१ मात्राएँ होती हैं, उसे मच्छ दोहा कहा जाता है.
उदाहरण:
१. जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नाहि पवेस.
तहि बढ़ चित्त बिसाम करु, सरहे कहिय उवेस.-सरहपा, संवत ६८०
२.हिय निर्गुन नयननि सगुन, रसना नाम सुनाम.
भनहुँ परट, संपुट लखत, तुलसी ललित ललाम. -तुलसीदास
३. परम धरम निर्मल करम, भरम न मन में पाल.
अमर-अजर सब कुछ नहीं, जगत काल के गाल. -आचार्य रामदेव लाल 'विभोर'
४. ह्रदय-कमल पर छा गए, कमलनयन जदुनाथ,
जीवन कमल अमल किये, कमल-कमल का साथ. -डॉ. राजेश दयालु 'राजेश'
५. हँसत बोल, बोलति हँसी, हँसि बोलत नन्दलाल.
लखि-लखि दृग, सुनि-सुनि स्रवन, गुनि-गुनि जोय निहाल. -डॉ. राजेश दयालु 'राजेश'
नंदलाल में 'न' के पर चन्द्रबिंदी, लघुमात्रा है.
६. चटक-मटक कि तड़क-भड़क, अटक-भटक कि निहार.
मैं तुझ पर बलिहार हूँ, किसी कि सभी प्रकार. -डॉ. राजेश दयालु 'राजेश'
७. कम्पित कदम कदम्ब तक, पहुँचे-संकुचे मौन.
छमछम चुप, धड़कन मुखर, परबस सुनता कौन. -सलिल (संकुचे में 'च' पर चन्द्रबिंदी, लघु मात्रा)
दोहा में गुरु मात्रा के घटने के साथ-साथ उनका रचना-कर्म कठिन होता जाता है. यदि बिना मात्रा के अक्षर मात्र से बनानेवाले शब्दों का प्रयोग अधिक से अधिक करें तो इन दोहों को रचना सहज होगा.
सभी सहभागी, जो किसी कारण से कम सक्रिय हैं इन प्रकारों ओके सिद्ध करने से न चूकें. जो दोहाकार इन प्रकारों को रच पता है उसे पूर्व के दोहे रचना सुगम हो जाता है.
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
इतनी जानकारी तो हमें कालेज में पढ़ते समय भी नही मिली थी.
आपका धन्यवाद
अच्छी जानकारी दे रहे हैं आप !!
गुरु जी
प्रणाम
मुझे भी अफ़सोस है की भारत जाकर आप से मिलना न हो पाया. हर दिन की विकट गर्मी, पेट की गड़बडी व स्थानों के बीच इतनी दूरियां.....इन सबने मुझे मजबूर कर दिया और मैं कुछ भी घूम फिर न सकी. ईश्वर की ही इच्छा रही होगी इसमें.
इस नये 'मच्छ' दोहे की जानकारी करवाने के लिए धन्यबाद.
अभी-अभी मैंने इस पर दो दोहे लिखे हैं:
१.
छलक-छलक जात कलश, पनघट पर है भीड़
दिन भर के थकित चरण, लौटत अपने नीड़.
२.
थका तृषित पथिक पियत, अंजुली भर-भर जल
तपत धरा बरसत अग्नि, मन-प्राण होत विकल.
Sundar Doha..
चटक-मटक कि तड़क-भड़क, अटक-भटक कि निहार.
मैं तुझ पर बलिहार हूँ, किसी कि सभी प्रकार
Badhayi ho!!!
ज्ञानप्रद जानकारी मिली.धन्यवाद
क्षमा-याचना:
अनजाने में पहले दोहे के पहले व तीसरे चरणों में एक-एक मात्रा की कमी रह गयी थी. अब सुधार रही हूँ.
छलक-छलक जावत कलश, पनघट पर है भीड़
थकित चरण अब सब भये, लौटत अपने नीड़.
क्या बात है शन्नो जी...
मजा ही आ गया...
वाह वाह....
इंडिया आते ही आ गयी आप तो लय में..
अरे मनु जी,
आप सबकी दुआओं से ही यह सब संभव हो रहा है. अपनी लैपटॉप का साथ पाकर मैं किसी और दुनिया में पहुँच जाती हूँ.....जहाँ बस मैं और मेरी कल्पना होती है. मुझे काफी व्यस्त रहना होगा जल्दी ही. दोहों की कक्षा से जुड़ कर एक खास लगाव सा हो गया है और जरा सा भी समय मिलते ही कक्षा में बिना ताक-झांक किये चैन नहीं आता अब. देखिये आने वाले समय में कितना ध्यान दे पाती हूँ.
और आप अपनी बात कीजिये अब, क्योंकि आपके ब्लॉग में मैंने कल बेशुमार ग़ज़लें पढीं साथ में और भी बहुत कुछ. मुझे तो लगता है की मैं मैदान छोड़कर भाग लूं अब. वोह सब पढ़कर मुझे आप की प्रतिभा पता लगी और अब आप से बड़ा डर लगने लगा है. काश मुझे भी उर्दू के शब्दों का कुछ ज्ञान होता और मैं भी ग़ज़ल लिखने की तमन्ना को पूरी कर पाती. हैरानी होती है आपकी talent पर. अब तो दोहे की कक्षा से ही चिपक कर रहना होगा, और गुरु जी की जब-तब डांट खाती रहूंगी कार्य पर पूरी तरह से ध्यान न देने के लिये. और दोहों से भी मित्रता करने की कोशिश करनी होगी. पता नहीं कब और कैसे करूंगी. खैर बातों में पूछना तो भूल ही गयी की आपके दोहे क्यों गायब हो गये. आप दोहे लिखना कैसे त्याग सकते हैं? गुरु जी और हम सबको निराश मत कीजिये, please.
सलिल जी मुझे दोहों की तो ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन आप से मैंने काफी कुछ सीखा है. मैं आपको साहित्याशिल्पी पर भी पढ़ चुका हूँ. बधाई,
सर्वप्रथम शन्नो जी को बधाई, श्रेष्ठ दोहे के लिए। अब लग रहा है कि दोहे के देश भारत से होकर गयी हैं तो पूरा ही ज्ञान ले लिया है। मैंने भी मच्छ प्रकार का एक दोहा लिखने का प्रयास किया है -
पलक-पलक पर सपन हैं
झपकत ही मिट जाय
नयन जतन कब से करे
मुँद-मुँद रही न जाय।
आचार्य जी आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।
पलक-पलक पर सपन हैं
झपकत ही मिट जाय
बहुत ही खूबसूरती के साथ पिरोया है आपने इन सब को ।
दोहा पढ़ कर कबीर,तुलसी को याद करा दिया . सभी को बधाई.
दिशा दिशा की खोज में, भटके बिना प्रयास.
मंजिल खुद ही खोजकर, पग चूमे सायास..
संगीता गीता पढ़े, कहे कर्म ही धर्म.
सब जीवन में धार लें. सच्चा जीवन मर्म..
शन्नो पर बलिहार है, दोहा पाकर साथ.
शुद्ध लिखा दोहा, सधा, 'सलिल' आपका हाथ..
जिससे दिल मिलता करे, दोहा विमल विनोद.
सीख-सिखाना हो सरल, कर आमोद-प्रमोद.
मंजू-मनु कंजूस हैं, दोहा रहे न बाँट.
दोहा ध्वज-धारी अजित!, क्यों न लगाएं डांट?
दोहा सदा फ़राज़ का, होता आया मीत.
'सलिल' कलम ले हाथ में, गाये उसके गीत.
अजित! रचा दोहा सही, लेकिन क्यों बस एक.
प्रतिभा है अद्भुत-अमित, पल में रचें अनेक..
दोहा-चरण पखार कर 'सलिल'-साधना धन्य.
छंद-राज दोहा सदृश, जग में छंद न अन्य..
उक्त दोहों के प्रकार बताइये.
आचार्य जी
कार्य कठिन है, फिर भी प्रयास करती हूँ -
प्रथम - 15 गुरू - नर
द्वितीय एवं षष्टम - 17 गुरू - मर्कट
तृतीय - 16 गुरू - करभ
चतुर्थ एवं अष्टम - 13 गुरू - गयंद
पंचम - 18 गुरू - मंडूक
सप्तम - 12 गुरू - पयोधर
गुरु जी,
प्रणाम
मेरी कोशिश यह है:
दिशा दिशा की खोज में, भटके बिना प्रयास.
मंजिल खुद ही खोजकर, पग चूमे सायास.. - हंस
संगीता गीता पढ़े, कहे कर्म ही धर्म.
सब जीवन में धार लें, सच्चा जीवन मर्म.. - मरकत
शन्नो पर बलिहार है, दोहा पाकर साथ.
शुद्ध लिखा दोहा, सधा, 'सलिल' आपका हाथ.. - करभ
जिससे दिल मिलता करे, दोहा विमल विनोद.
सीख-सिखाना हो सरल, कर आमोद-प्रमोद. - गयंद
मंजू-मनु कंजूस हैं, दोहा रहे न बाँट.
दोहा ध्वज-धारी अजित!, क्यों न लगाएं डांट? - करभ
दोहा सदा फ़राज़ का, होता आया मीत.
'सलिल' कलम ले हाथ में, गाये उसके गीत. - मरकत
अजित! रचा दोहा सही, लेकिन क्यों बस एक.
प्रतिभा है अद्भुत-अमित, पल में रचें अनेक..- गयंद
दोहा-चरण पखार कर 'सलिल'-साधना धन्य.
छंद-राज दोहा सदृश, जग में छंद न अन्य.. - पयोधर
अजित जी,
आपने मेरे दोहे के बारे में सम्मान दिया जिसके लिए धन्यबाद. लेकिन आपके लिखे दोहे इतने उत्तम होते हैं की हम सब निहाल हो जाते हैं.
और जहाँ तक भारत जाकर दोहे का ज्ञान हासिल करने की बात है तो:
दोहों के देश में थी, जहाँ भरा है ज्ञान
पर पेट की गड़बड़ से, न दे पायी ध्यान.
दिशा दिशा की खोज में, भटके बिना प्रयास.
१ २ १ २ २ २ १ २, १ १ २ १ २ १ २ १
मंजिल खुद ही खोजकर, पग चूमे सायास..
२ १ १ १ १ २ २ १ १ १ १ १ २ २ २ २ १
गुरु १५ नर
संगीता गीता पढ़े, कहे कर्म ही धर्म.
२ २ २ २ २ १ २ १ २ २ १ २ २ १
सब जीवन में धार लें. सच्चा जीवन मर्म..
१ १ २ १ १ २ २ १ २ २ २ २ १ १ २ १
गुरु १८ मंडूक
शन्नो पर बलिहार है, दोहा पाकर साथ.
२ २ १ १ १ १ २ १ २ २ २ २ १ १ २ १
शुद्ध लिखा दोहा, सधा, 'सलिल' आपका हाथ..
२ १ १ २ २ २ १ २ १ १ १ २ १ २ २ १
गुरु १६ करभ
जिससे दिल मिलता करे, दोहा विमल विनोद.
१ १ २ १ १ १ १ २ १ २ २ २ १ १ १ १ २ १
सीख-सिखाना हो सरल, कर आमोद-प्रमोद.
२ १ १ २ २ २ १ १ १ १ १ २ २ १ १ २ १
गुरु १३ गयंद
मंजू-मनु कंजूस हैं, दोहा रहे न बाँट.
२ २ १ १ २ २ १ २ २ २ १ २ १ २ १
दोहा ध्वज-धारी अजित!, क्यों न लगाएं डांट?
२ २ २ १ २ २ १ १ १ २ १ १ २ २ २ १
गुरु १८ मंडूक
दोहा सदा फ़राज़ का, होता आया मीत.
२ २ १ २ १ २ १ २ २ २ २ २ २ १
'सलिल' कलम ले हाथ में, गाये उसके गीत.
१ १ १ १ १ १ २ २ १ २ २ २ १ १ २ २ १
गुरु १७ मर्कट
अजित! रचा दोहा सही, लेकिन क्यों बस एक.
१ १ १ १ २ २ २ १ २ २ १ १ २ १ १ २ १
प्रतिभा है अद्भुत-अमित, पल में रचें अनेक..
१ १ २ २ २ १ १ १ १ १ १ १ २ १ २ १ २ १
गुरु १३ गयंद
दोहा-चरण पखार कर 'सलिल'- साधना धन्य.
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छंद-राज दोहा सदृश, जग में छंद न अन्य..
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गुरु १३ गयंद
सहभागियों को ढेर सी शुभकामनायें शेष जन देखकर गिनें तो अभ्यास होगा.
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