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वक्त के पाँव तो कुछ क़दम थे चले
तय किए ज़िंदगी ने कई फासले
चलते-चलते फकत कुछ महीने हुए
पार हैं कर चुके उम्र के मरहले*
कहनी है बात पिछले जनम की तुझे
इस खुदी की बहस में न दिन फ़िर ढले
बाँह ने, बात ने, फ़िर है बदली जगह
बाँह यादों में है, बात चुभती गले
ये नशा- ए-सुखन* तेरी तल्खी से है
जाम औरों के मीठे हो कितने भले
दिल का रिश्ता था दिल सा धड़कता चला
दिल झुके, दिल उठे, दिल रुके, दिल चले
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फाइलुन X 4
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*मरहले= पड़ाव
*नशा-ए-सुखन= काव्य का नशा
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RC
March 02, 09
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
सचमुच बहुत ही बेहतरीन है ये रचना
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत दिनों के बाद आप आए,
अकेले नहीं, नयी ग़ज़ल साथ लाये |
रचना अच्छी है ख़ास कर शब्दों का चयन |
फ़िर भी संतुलन याने लय ( flow ) की और जरुरत लगी मुझे कुछ शेरों में |
बधाई |
अवनीश तिवारी
हम भी थे इस सोच में कब आर.सी के दर्श हों
इतने दिनों तक लुप्त थे, बोलो कहाँ गये थे चले
टिप्पणियों के रास्ते ही आ जाया कीजियेगा जी.
ना लिख सकें हो व्यस्तता में पोस्ट करने को भले
छः शे'र लेकर आ गये फाइलुन गुना चार की..
उंगलियाँ आ गयीं अचानक पढकर इन्हें दातों तले
वाह-वाह, वाह-वाह, वाह-वाह क्या बात है
रुकती नहीं यह वाह-वाह, मेरे फेंफडे भी ऐसे चले
जानदार ग़ज़ल..पढ़कर आनंद आ गया. आपको बधाई.
बहुत ही अच्छी और कामयाब ग़ज़ल,,,,
देर से ही सही,,,,मगर ये तो कन्फर्म था,,,,
के आप अब के लाजवाब रचना के साथ ही प्रस्तुत होंगे,,,,
बहुत बहुत बधाई,,,,,,,
दिल का रिश्ता था दिल सा धड़कता चला
दिल झुके, दिल उठे, दिल रुके, दिल चले
wallah ,
tum par garibnawaj ki meharbaani hai ,aise hi chamko ,magar jara jaldi jaldi ,waqt bahut kam hai ,
रूपम जी,
मुझे जहाँ तक लगता है कि 'बहर' में लिखने से भी अधिक महत्वपूर्ण है कथ्य की अदायगी। 'अंदाज़-ए-बयाँ' किसी भी विधा की कविता की अनिवार्य आवश्यकता है। मैंने अभी कुछ दिन पहले 'निदा फ़ाज़ली' का साक्षात्कार सुना, उन्होंने भी यही बात कही कि व्याकरण तो बाहरी चोंगा है, कविता की मूल आत्मा तो उसमें निहीत संदर्भों में है।
मैं कुछ उदाहरण लेता हूँ। इसी मंच पर एक कवि हैं निखिल आनंद गिरि। उनकी कोई भी ग़ज़लनुमा रचना बहर में नहीं है, लेकिन पंक्तियाँ बहुत प्रभावी हैं। जैसे-
मोतियों की आस में दरिया खंगालता रहा,
बस एक यही दर्द था, हर रोज़ सालता रहा...
एक उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
नादान था, मतलब कई निकालता रहा....
गुजरी हुई रुतों के खामोश-से किस्से,
आंसू की शक्ल में,सफों पे ढालता रहा.
दिन न गुज़रा कोई करीने से,
जी मेरा भर गया है जीने से...
क्या समंदर था उसकी आंखों में,
प्यास बढ़ती ही रही पीने-से....
वो मुझे इक बुत बनाना चाहता है,
ख्वाहिशों को आजमाना चाहता है...
मुस्कुरा देता है हर इक बात पर,
मुझसे अपने ग़म छिपाना चाहता है...
एक और कवि हैं मनीष वंदेमातरम्, जो अब कविताएँ ही नहीं लिखते, उनकी रचना के कुछ अंश
रात भर भौंरा मचलता है
तब कोई फूल खिलता है।
तुम्हें क्या मालूम अहमियत भूख की
एक रोटी को तवा घंटों जलता है।
मैं बस यहीं कहूँगा कि आप अदायगी पर भी ध्यान दें। लेकिन यह नहीं कहना चाहता कि आप बहर न लिखें, आप बेशक लिखें और जिन कवियों की कविताओं का मैंने उदाहरण दिया, उन्हें भी लिखना चाहिए, लेकिन हाँ 'तेवर' हमेशा ध्यान रहे।
रूपम जी!
क्या बात है आप भी "बहर" के बहाव में बह निकलीं :)
ये नशा- ए-सुखन तेरी तल्खी से है
जाम औरों के मीठे हो कितने भले
वाह! बहुत खूब।
साथ हीं यह भी:
दिल का रिश्ता था दिल सा धड़कता चला
दिल झुके, दिल उठे, दिल रुके, दिल चले
ऎसे हीं लिखते रहिए......जब बहर और ज़हर का मिलन होता है तो गज़ल अपने चरम पर आ जाती है।
मैं शैलेश जी से सहमत हूँ भी और नहीं भी।गज़ल में कथ्य की अदायगी तो महत्वपूर्ण है हीं लेकिन इस कथ्य की कतार में शिल्प को भी लाना होता है। कोई पाठक जब किसी रचना को गज़ल मान कर पढना शुरू करता है तो उसकी चाहत होती है कि पूरी गज़ल वह एक साँस में पढ ले और कहीं भी लय न बिगड़े। इसी लय के लिए शिल्प (जिसमें रदीफ़, काफ़िया और बहर सभी आते हैं) की ज़रूरत होती है। मैने भी कुछ गज़लनुमा रचनाएँ लिखी हैं,लेकिन बहर का ज्ञान नहीं होने के कारण उन्हें गज़ल कहने से कतराता हूँ। वैसे यह मुद्दा इतनी बार उठ चुका है और इतनी बार बहस हो चुकी है कि इसपर ज्यादा कहने से कोई फायदा नहीं।
और हाँ इस गज़ल में मुझे कथ्य की अदायगी में कोई कमी नहीं लगी , इसलिए इतना लंबा-चौड़ा लिखना पड़ा :) (माफ़ कीजिएगा शैलेश जी :P )
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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