मोतियों की आस में दरिया खंगालता रहा,
बस एक यही दर्द था, हर रोज़ सालता रहा...
एक उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
नादान था, मतलब कई निकालता रहा....
गुजरी हुई रुतों के खामोश-से किस्से,
आंसू की शक्ल में,सफों पे ढालता रहा...
उसको यकीं था, दूध दे सकता नहीं दगा...
अजगर को आस्तीन में ही पालता रहा...
माँ ने रोके फिर कहा,"आके मुझको देख ले",
बेटे ने कहा-"ठीक है ",फिर टालता रहा...
मज़हब न आड़े आएगा,कभी दो दिलों के बीच,
दोनों को ही ताउम्र ये मुगालता रहा....
खुद से ही न मिल जाऊं किसी मोड़ पर "निखिल",
चेहरे पे इक नकाब रोज़ डालता रहा.....
निखिल आनंद गिरि
+919868062333
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
अति सुन्दर तरीके से आपने मनोभावों को प्रगट किया है...बधाई
निखिल इस में जो भाव आपने लिखे है वह अच्छे हैं लेकिन कुछ पंक्तियों में यह नए से नही लगे
जिन पंक्तियों से मेरे दिल को छू लिया और जो आज के संदर्भ में एक सच भी है वही यह लगीं
माँ ने रोके फिर कहा,"आके मुझको देख ले",
बेटे ने कहा-"ठीक है ",फिर टालता रहा...
और ...
खुद से ही न मिल जाऊं किसी मोड़ पर
चेहरे पे इक नकाब रोज़ डालता रहा...
बहुत खूब बात कही है यह आपने ...अपने से ही नजरें मिलाना शायद सबसे मुश्किल होता है :)
शुभ कामनाओं सहित
सस्नेह
रंजू
माँ ने रोके फिर कहा,"आके मुझको देख ले",
बेटे ने कहा-"ठीक है ",फिर टालता रहा...
बहुत खूब .
अवनीश तिवारी
निखिल
हमेशा की तरह बहुत सुन्दर।
मोतियों की आस में दरिया खंगालता रहा,
बस एक यही दर्द था, हर रोज़ सालता रहा...
एक उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
नादान था, मतलब कई निकालता रहा....
प्रभाव शाली लिख रहे हो । बहुत-बहुत बधाई तथा आशीर्वाद
निखिल !
एक उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
..........
खुद से ही न मिल जाऊं किसी मोड़ पर
चेहरे पे इक नकाब रोज़ डालता रहा...
बहुत मुश्किल है तुम्हारी रचना पर मौन रहना
निखिल जी आपने शुरुआत अच्छी की है विशेष कर मोतियों की आस में दरिया खंगालता रहा
कविता अच्छी है
अंजू जी,
टिपण्णी का शुक्रिया...अपना परिचय भी दें....हिन्दयुग्म पर आपको कम देखा है....स्वागत...
निखिल आनंद गिरि
निखिल जी,
भावनाओं पर आपकी पकड गहरी है, महसूस कर के लिखा गया है प्रत्येक शेर..तथापि शिल्प पर तोडा श्रम शेष है अभी।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुंदर रचना है, निखिल! गंभीर भावों को बहुत सहजता से शब्दों में पिरोया है. हाँ, राजीव जी की बात का समर्थन मैं भी करूँगा.
निखिल जी आपने बहुत ही सुन्दर लिखा है...
- उर्दू शब्दों को भी बहुत अच्छा प्रयोग किया है
- तुकांत का भी अच्छा ध्यान रखा है..
बस छोटी से बात ये कहना चाहूँगा
- आपने कई सारे बातें कही है.. जिनका मतलब एक सा ही है ये स्वतः समझने वाला है.. पर मुझे ऐसा लगता है.. की आपको कविता की समाप्ति उस एक मतलब से करनी चाहिए.. जो आप अपनी सभी पंक्तियों मै कहना चाहते है.....
- कुछ कुछ उर्दू के शब्द कम प्रचलित है.. और अगर आपकी कविता... जन साधारण के समझ मै आये उसके लिए अच्छा रहेगा. अंत मै.. आप शब्दार्थ दें ,
अच्छी कविता के लिए बधाई....
-शैलेश जम्लोकी (मुनि )
उसको यकीं था, दूध दे सकता नहीं दगा...
अजगर को आस्तीन में ही पालता रहा...
मज़हब न आड़े आएगा,कभी दो दिलों के बीच,
दोनों को ही ताउम्र ये मुगालता रहा....
खुद से ही न मिल जाऊं किसी मोड़ पर "निखिल",
चेहरे पे इक नकाब रोज़ डालता रहा.....
bahut sundar panktiyaan hain yeh....bas likhte rahiye...aur u hi chamakte rahiye
माँ ने रोके फिर कहा,"आके मुझको देख ले",
बेटे ने कहा-"ठीक है ",फिर टालता रहा...
निखिल जब भी तुम्हारी रचना मे माँ का जिक्र आ जाता है, जाने क्या जादू सा चल जाता है
खुद से ही न मिल जाऊं किसी मोड़ पर "निखिल",
चेहरे पे इक नकाब रोज़ डालता रहा.....
बहुत खूब
मोतियों की ............डालता रहा
निखिल,कहूँ मैं कविता इसको या गहराई गहरी
धूमिल होते गये शब्द पर नज़र रही बस ठहरी
तेरे दरिया खंगालने से हमें मिला एक मोती
वैसे तेरी हर कविता में बात छुपी यह होती..
आगे और लिखूँ क्या भाई यही कामना मेरी..
मोती उगले बिना रुके ये कलम अनौखी तेरी..
-बहुत बहुत बधाई
शैलेश जमलोकी जी,
इतनी गहन टिपण्णी का शुक्रिया....मैं इस बात का पूरा ध्यान रखूँगा कि आगे की रचनाओं में कठिन शब्दों के अर्थ भी लिख दूँ.....आपकी और भी सलाह पर पूरा गौर करूँगा..इसी तरह उत्साह बढाते रहे....
निखिल आनंद गिरि
एक उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
नादान था, मतलब कई निकालता रहा....
ये पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगी कविता वाकई अच्छी है
सुनीता यादव
निखिल जी,
इस कविता मैं बहुतों के मन की व्यथा आप कह गए हैं--
यह तो आज कल के मनाव मन की कहानी है---भावों को भली भाँती आपने शब्दों में ढाला है-
मोतियों की आस में सच में जाने कितने ''दरिया'' लोगों ने छान डाले-मगर कुछ मिला नहीं--
धन्यवाद-
निखिल जी
बहुत अच्छा प्रयास है. भाव और शब्द खूब चुने हैं आपने हाँ लय और ताल का थोड़ा अभाव है. लिखते रहें.
नीरज
मेरे हिसाब से तो इस ग़ज़लनुमा कविता को बहुत कम कोशिशों द्वारा ही निखारा जा सकता है-
जैसे-
एक उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
नादान था, मतलब कई निकालता रहा....
में 'एक' के बिना में काम चलेगा
उम्र भर के सफर में, इक शाम भर का साथ,
नादान था, मतलब कई निकालता रहा....
वैसे मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ। ज्यादा सजेशन नहीं दूँगा। हाँ इतनी तारीफ़ करूँगा कि भावों के स्तर पर आपकी हर कविता सफल होती है।
माफ कीजिएगा निखिल जी। किसी पंक्ति को विशेष रूप से उल्लेखित नहीं कर रहा ।क्योंकि मुझे आपकी पूरी गज़ल हीं flawless लगी।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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