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Sunday, December 02, 2007

खोज.....


खोज.....


वह किसे ढूँढ रहा है?

गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
दिगहरा पंछी को
जो खो चुका अनंत आसमान में.?
दिशाहीन नदी को
जो भूल चुकी अपना किनारा.?
विस्मृत शब्द को
या अमृत अनुभव को..
जो वह शायद कहीं छोड़ आया है...
आग्रह है
अनुरोध है
उस आत्मीय सत्ता से
जिसे मैं ले जाऊं मूर्त से अमूर्त की ओर
नहीं तो क्या जीवन भर ऐसे ही मिटती रहूँ
भूलने की बवंडर में
या फ़िर भूलती जाऊं
खोजने की चक्रवात में....?

सुनीता यादव

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21 कविताप्रेमियों का कहना है :

Nikhil का कहना है कि -

सुनीता जी,
आपको ज्यादा पढा नही है मगर अच्छा लग रहा है आपको पढ़ते हुए..
"वह किसे ढूँढ रहा है?

गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
दिगहरा पंछी को
जो खो चुका अनंत आसमान में.?
दिशाहीन नदी को
जो भूल चुकी अपना किनारा.?
विस्मृत शब्द को
या अमृत अनुभव को..
जो वह शायद कहीं छोड़ आया है..."
यहाँ तक कविता पूरी तरह से प्रभावित करती है....
इसके बाद मुझे पता नही क्यों, शब्द-चयन में या फिर भाव समझने में थोडी परेशानी हुई...
वैसे कुल मिलाकर कविता प्रशंश्नीय है........

निखिल आनंद गिरि

राजीव तनेजा का कहना है कि -

सुनीता जी आपकी कविता के इस हिस्से ने बेहद प्रभावित किया
"वह किसे ढूँढ रहा है?

गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
दिगहरा पंछी को
जो खो चुका अनंत आसमान में.?
दिशाहीन नदी को
जो भूल चुकी अपना किनारा.?
विस्मृत शब्द को
या अमृत अनुभव को..
जो वह शायद कहीं छोड़ आया है..."

मृगतृष्णा के पीछे-पीछे तो श्री राम जी भी चले गए थे...हमारी या आपकी बिसात ही क्या है...

माफी चाहूँगा कि इसके बाद का भाव मैँ ठीक से समझने में असमर्थ रहा...इसे मेरा अल्प ज्ञान ही समझें ..आप बेहतर जानती होंगी...

वैसे कविता बहुत सुन्दर है...बधाई...

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सुनीता जी आपकी कविता का आरंभ बेहद सुंदर तरीके से हुआ और इन पंक्तियों ने इसके भाव पक्ष को भी बहुत गहराई से बताया

वह किसे ढूँढ रहा है?

गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
दिगहरा पंछी को
जो खो चुका अनंत आसमान में.?
दिशाहीन नदी को
जो भूल चुकी अपना किनारा.?
विस्मृत शब्द को
या अमृत अनुभव को..

सुंदर ....
पर बाद में कही यह अस्पष्ट सी हो गई है ..जैसे कोई बात होंठो तक आते आते रुक गई या बदल गई ..यह मेरे अपने विचार भी हो सकते हैं ..:) इसको पढ़ना अच्छा लगा ..शुभकामना के साथ
रंजू

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

निखिलजी, राजीवजी एवं रंजू जी अत्यन्त आभारी हूँ कि आपको मेरी कवितायें पसंद आती हैं...जिस अस्पष्टता की बात आप कर रहें हैं ...उसके बारे मैं कुछ कहना चाहूंगी...
ये आग्रह है उस खोजी से जो सिर्फ़ ढूँढने में व्यस्त है उसे कभी अमूर्त की और ले जाने की चाह है तो कभी उसे भूल जाने की चाह है या अपने आप को खो देना है उस खोजी को खोजने की चक्रवात मैं .....खोजी सिर्फ़ पुरूष ही नही स्त्री भी है ....
पता नहीं मैं इसे ठीक से संप्रेषित कर पा रही हूँ या नहीं...मार्गदर्शन करें...

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

आग्रह है
अनुरोध है
उस आत्मीय सत्ता से
जिसे मैं ले जाऊं मूर्त से अमूर्त की ओर
नहीं तो क्या जीवन भर ऐसे ही मिटती रहूँ
भूलने की बवंडर में
या फ़िर भूलती जाऊं
खोजने की चक्रवात में....?
आत्म परीक्षण का साक्छात्कार करती ये पंक्तियाँ विशेष है.


अवनीश तिवारी

Nikhil का कहना है कि -

सुनीता जी,
आपकी कविता में कोई दोष नही है.....हाँ, वही संप्रेषण की दृष्टि से थोडी मुश्किल लग रही थी...लेकिन आपने स्पष्ट कर दिया अब....
स्त्री भी खोजी है...वो तो है ही.... अपने आप को खो देने की चाह भी है और उसे भूल जाने की भी...महादेवी वर्मा इस तरह के रहस्यवाद का खूबसूरत प्रयोग करती थीं....आपकी कविता भी वैसी ही है.....
निखिल आनंद गिरि

शोभा का कहना है कि -

सुनीता जी
बहुत अच्छा लिखा उस आत्मीय सत्ता से
जिसे मैं ले जाऊं मूर्त से अमूर्त की ओर
नहीं तो क्या जीवन भर ऐसे ही मिटती रहूँ
भूलने की बवंडर में
आजकल यही स्थिति है ।
अच्छा मोड़ दिया है । बधाई ।

Unknown का कहना है कि -

सुनीता जी



गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
........?
दिशाहीन नदी को
......

जो वह शायद कहीं छोड़ आया है...
.......

ले जाऊं मूर्त से अमूर्त की ओर
नहीं तो क्या जीवन भर ऐसे ही मिटती रहूँ
.......
खोजने की चक्रवात में....?

प्रारम्भ से ही देख रहा हूं आपकी रचनाओं को.... गार्म्भीय के आलोक में अपनी डगर ढूंढती प्यारी सी बच्चियों की तरह. एक मुस्कराहट है इस पल, आपकी रचना एवं ऊपर पढ़ी सारी टिप्पणियों के बाद. युग्म को 'नजर ना लगे' वाक्य का एक मुहावरे के रूप में ही प्रयोग कर रहा हूं
स्नेह
शुभकामना

anju का कहना है कि -

सुनीता जी कविता के भाव अच्छे है
मगर क्यों कविता अधूरी सी लगी वैसे अच्छी है और एक बात अगर इसका विषये खोज न दे कर dhundh रहा है लिखे टू जादा सही है

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

सुनीता जी,

रचना के सूफियाना तत्व इसे उँचायी प्रदान कर रहे हैं। संप्रेषणीयता की कमी मैं नहीं मानता अपितु हर बार पढने पर नये अर्थों को प्रदान करती रचना बेहद उत्कृष्ट है।

बधाई स्वीकारें।

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

सुनीता जी!
इतने गंभीर विमर्श के बाद अब कहने को मेरे पास कुछ विशेष नहीं बचा है. बस बधाई स्वीकारें!

Anupama का कहना है कि -

गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
दिगहरा पंछी को
जो खो चुका अनंत आसमान में.?
दिशाहीन नदी को
जो भूल चुकी अपना किनारा.?
विस्मृत शब्द को
या अमृत अनुभव को..

उस आत्मीय सत्ता से
जिसे मैं ले जाऊं मूर्त से अमूर्त की ओर
नहीं तो क्या जीवन भर ऐसे ही मिटती रहूँ
भूलने की बवंडर में
या फ़िर भूलती जाऊं
खोजने की चक्रवात में....?

AACHA LIKHA HAI LAGTA HAI ADHYAATAM KI OR GAHARA JHUKAAV HAI....

Mohinder56 का कहना है कि -

सुनीता जी,
गहन अर्थ लिये मेरे पसन्द की कविता...

बधाई

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

अभी तक मोहिन्दर जी ही दार्शनिक कवि थे, अब आपका भी पर्दापण हुआ। स्वागत आपका

Sajeev का कहना है कि -

सुनीता जी मुझे तो पूरी रचना बहुत सार्थक लगी.... बशाई

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

खुद से खुद की बात है खुद से खुद का ज़िक्र
खुद ना भटके रास्ता 'राघव' खुद की फिक्र

मेरे हिसाब से चिंतन मनन प्रधान रचना है.
सुनीता जी बतायें क्या मैं कविता के वस्तविक अर्थ तक पहुँच रहा हू या कहीं भटक रहा हूँ
एक अच्छी सारगर्भित रचना के लिये बधाई

Alpana Verma का कहना है कि -

आप की कविता में एक रहस्य समाया हुआ लगता है-जैसे अन्तर मन की ख़ुद से कुछ गुप्त कशमकश हो रही हो-जिसे आप की लेखनी ने कागज़ पर उतारने की कोशिश की है---बधाई-

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

खोज... अच्छा विषय..अच्छी सोच!

दार्शनिक होने के लिये अनुभव चाहिये और अनुभव उम्र की मोहताज़ नहीं... सही! साबित कर दिया है आपने...

लिखने से पहले आपने स्थिति को कितने करीब से महसूस किया है, आपकी रचना को पढ़कर महसूस हो रहा है।

एक बात और हो साबित हो गई कि आज भी रचनात्मकता दिल से जन्म लेती है, दिखावटीपन से दूर है...

बहुत-बहुत बधाई!

नीरज गोस्वामी का कहना है कि -

सुनीता जी
शब्द और भाव का सुदर समन्वय देखने को मिला है आप की कविता में. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर.
नीरज

विश्व दीपक का कहना है कि -

गंधहीन पुष्प को
जिसकी सुगंध पुरवाई ले चुकी है.?
दिगहरा पंछी को
जो खो चुका अनंत आसमान में.?
दिशाहीन नदी को
जो भूल चुकी अपना किनारा.?
विस्मृत शब्द को
या अमृत अनुभव को..
जो वह शायद कहीं छोड़ आया है...

भूलने की बवंडर में
या फ़िर भूलती जाऊं
खोजने की चक्रवात में....?

युग्म पर एक और दार्शनिक रचनाकार का पदार्पण हुआ है। अच्छा लगा इस रचना को पढकर। जितना मैं समझ सका, उसके अनुसार तो कविता कई अर्थ देती है और हर अर्थ गूढ। धीरे-धीरे सारे अर्थों को समझने की कोशिश करूँगा। तब-तक एक हीं अर्थ से संतुष्ट हो जाता हूँ।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Anonymous का कहना है कि -

THE SECOND PART OF THE POEM IS HEART TOUCHING. SPIRITUAL THINKING IS CLEARLY REFLECTED IN THOSE LINES.MAY GOD BLESS YOU TO REACH THE OPTIMUM LEVEL IN EACH AND EVERY FIELD OF YOUR LIFE.

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