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Saturday, December 01, 2007

क्षणिकायें


क्षुब्ध हो तुम,
ये पौधे बोलते क्यों हैं ?
क्यों चलते, झगड़ते , खड़े हैं
तुम्हारे विरूद्ध ?
बीज तो तुमने ही बोया था ।

-------

लोग नाराज़ हैं
कि तुम्हें पूज़ता हूँ मैं
मैं तो कुछ नहीं कह्ता
ज़ब वे पत्थर पूजते हैं ।

-------

तुम सोचते हो
अच्छा नचाते हो
कठपुतलियों को-
अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?

-----

पत्थरों के दिल नहीं,
उनके चेहरे सपाट हैं
तुम्हारा तो दिल है ?

-----

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।
- आलोक शंकर

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21 कविताप्रेमियों का कहना है :

Sajeev का कहना है कि -

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका भी दिल है ।
अलोक जी आपकी रचनाओं का हमेशा ही कायल रहा हूँ, और तो आपने इतनी सुंदर क्षणिकाएँ देकर मन खुश कर दिया सब एक से बढ़कर एक हैं बधाई

Unknown का कहना है कि -

..........इन्हें क्षणिकायें बस आकार के आधार पर ही कह सकते हैं पर मेरे लिये गम्भीर और सुर्दीघ प्रभावकारी

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

लोग नाराज़ हैं
कि तुम्हें पूज़ता हूँ मैं
मैं तो कुछ नहीं कह्ता
ज़ब वे पत्थर पूजते हैं ।

पत्थरों के दिल नहीं,
उनके चेहरे सपाट हैं
तुम्हारा तो दिल है ?

ये कुछ अधिक पसन्द आई। वैसे हर एक क्षणिका लाज़वाब है आलोक जी।
आपकी अगली क्षणिकाओं की प्रतीक्षा रहेगी।

अमिताभ मीत का कहना है कि -

सर जी, इन्हें आप क्षणिकाएँ क्यों कहते हैं ? अपने अन्दर जो एक काल छिपाए बैठी हैं ...... बहुत गंभीर, बहुत सहज. क्षणिकाएँ थीं या क्या था ... फिर कभी सोचूँगा .. फिलहाल तो इन ने क्षण भर में आप का कायल कर दिया.

शोभा का कहना है कि -

अलोक जी
भुत सुंदर लिखा है.
लोग नाराज़ हैं
कि तुम्हें पूज़ता हूँ मैं
मैं तो कुछ नहीं कह्ता
ज़ब वे पत्थर पूजते हैं ।

पत्थरों के दिल नहीं,
उनके चेहरे सपाट हैं
तुम्हारा तो दिल है ?
grt lines

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

आलोक शंकर जी का क्षणिकाओं में प्रवेश दमदार है। मुझे कठपुतली वाली बहुत पसंद आई।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत सुंदर और बहुत ही दिल को छु लेने वाली क्षणिकायें है आपकी आलोक जी ...वैसे तो सब एक से बढ़ के एक हैं मुझे यह बेहद पसन्द आयीं

तुम सोचते हो
अच्छा नचाते हो
कठपुतलियों को-
अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?
*****

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।

बहुत पसंद आई।

Nikhil का कहना है कि -

"तुम सोचते हो
अच्छा नचाते हो
कठपुतलियों को-
अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?"

"कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।"

आह-वाह.......क्या बात है.....क्षणिकाएँ लाजवाब बन पड़ी हैं........आपने भी खूब हाथ आजमाया.....

निखिल

विश्व दीपक का कहना है कि -

लोग नाराज़ हैं
कि तुम्हें पूज़ता हूँ मैं
मैं तो कुछ नहीं कह्ता
ज़ब वे पत्थर पूजते हैं ।

अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?

तुम्हारा तो दिल है ?

कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।

बहुत हीं खूबसूरत एवं सधी हुई क्षणिकाएँ हैं आलोक जी। बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

दिवाकर मणि का कहना है कि -

आलोकजी,


क्षुब्ध हो तुम,
ये पौधे बोलते क्यों हैं ?
क्यों चलते, झगड़ते , खड़े हैं
तुम्हारे विरूद्ध ?
बीज तो तुमने ही बोया था ।

--
वाह, गागर में सागर भर दिया !
बधाई स्वीकारें.

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

बहुत अच्छा अलोक जी
ये पंक्तिया बहुत पसंद आई....

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।

बधाई

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

तुम सोचते हो
अच्छा नचाते हो
कठपुतलियों को-
अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?

-----

पत्थरों के दिल नहीं,
उनके चेहरे सपाट हैं
तुम्हारा तो दिल है ?

-----

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।

दिल को छूनेवाली पंक्तियाँ...बहुत खूब

सुनीता यादव

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।---


अरे यार मन की बात कही है.
बहुत सुंदर .


अवनीश तिवारी

अभिषेक पाटनी का कहना है कि -

bahoot khoob wakai alok jee kam shabdon me jo kamal kshannikayein khojatee hain wo kamal har kshannika me maujud hai !!!

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आलोक जी,
आपके इस गहरे प्रशंसक को आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहती है। आपकी क्षणिकायें पहली बार पढी किंतु इनकी गहरायी और आपके विषय चयन की प्रशंसा करने को बाध्य हूँ।

क्षुब्ध हो तुम,
ये पौधे बोलते क्यों हैं ?
क्यों चलते, झगड़ते , खड़े हैं
तुम्हारे विरूद्ध ?
बीज तो तुमने ही बोया था ।

तुम सोचते हो
अच्छा नचाते हो
कठपुतलियों को-
अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?


कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

आलोक जी!
अब भी तारीफ़ करनी होगी क्या :)
सब कुछ तो भाई लोग पहले ही कह चुके. अब सिर्फ़ बधाई स्वीकार करें.

Anupama का कहना है कि -

पत्थरों के दिल नहीं,
उनके चेहरे सपाट हैं
तुम्हारा तो दिल है ?

कहते हैं , दीवारों के कान हैं
कभी तन्हा रहो
तो पता चले
उनका दिल भी है ।

KYA BAAT KAHI HAI......ASAADHARAN TAREEKE SE

jj का कहना है कि -

bahut badhiya!

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

जबरदस्त लिखा है.....
कायल हो गया

Alpana Verma का कहना है कि -

तुम सोचते हो
अच्छा नचाते हो
कठपुतलियों को-
अपने बदन के धागे
तुम्हें नहीं दीखते ?
बहुत खूब -यह पंक्तियाँ खूब कही आपने!!!!!!वाह वाह-!
-अलोक शंकर जी सारी क्षणिकायें पसंद आयीं

नीरज गोस्वामी का कहना है कि -

लोग नाराज़ हैं
कि तुम्हें पूज़ता हूँ मैं
मैं तो कुछ नहीं कह्ता
ज़ब वे पत्थर पूजते हैं

आलोक जी
ये क्षणिकाएँ हैं? नहीं कालजयी रचनाएँ हैं. कमाल का लेखन.
बधाई इन शब्दों के चयन और भावों के लिए.
नीरज

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