दिन न गुज़रा कोई करीने से,
जी मेरा भर गया है जीने से...
क्या समंदर था उसकी आंखों में,
प्यास बढ़ती ही रही पीने-से....
अब उम्मीदों को बिदाई दे दो,
लौट आया है वो मदीने से....
आओ कुछ देर मेरी बाहों में,
मैं भी रोया नहीं महीने से....
चाँद ने जब से छुप के वार किया,
नज्म इक रिस रही है सीने से...
निखिल आनंद गिरि
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
चाँद ने जब से छुप के वार किया,
नज्म इक रिस रही है सीने से...
वाह निखिल जी क्या दर्द है!
निखिल जी!
दिन न गुज़रा कोई करीने से,
जी मेरा भर गया है जीने से...
ऐसा लगा कि मेरे लिए ही लिखा है आपने
शुक्रिया!
भले ही इसमें व्याकरण न हो पर ऐसा कुछ है जो इसको सुंदर बना रहा है, और यही असली बात है।
व्याकरण मैं नहीं जानता निखिल भाई, लेकिन पढ़ते ही दिल इस गज़ल की दाद दे उठा।
हर शे'र उतना ही अच्छा है। बहुत खूब!
बहुत खूब, पर आपकी पहली ग़ज़लों जैसी बात नहीं लगी इसमें
हरिहर जी, प्रतिक्रिया का धन्यवाद...
मनीष और गौरव भाई,
सच कहूँ तो व्याकरण मैं भी नहीं जानता..बस, जो जीता हूँ, लिख लेता हूँ....अच्छी लगे तो ठीक, न लगे तो भी.....मेरे लिए तो मेरे शब्द अहम् हैं ही...जब पाठकों को अच्छी लगती है तो लगता है रचना सफल हो गई..
सजीव जी, कवि की अलग-अलग मनः स्थितियों का मज़ा लीजिये....
निखिल
दिन न गुज़रा कोई करीने से,
जी मेरा भर गया है जीने से...
क्या समंदर था उसकी आंखों में,
प्यास बढ़ती ही रही पीने-से....
क्या लिख दिया निखिल भाई.ह्म्म्म्म्म्म्म.....आनंद आ गया,
क्या कहूँ,बस घायल कर दिया आपने,
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत ही साधारण रचना है . और कोशिश की जरूरत है
निखिल भाई,
इस रचना की पहली दो पंक्तियों ने मुझे आगे पढ़ने को मजबूर किया।
दिन न गुज़रा कोई करीने से,
जी मेरा भर गया है जीने से...
बहुत खूब। मेरा जी सच में भर आया है।
अब उम्मीदों को बिदाई दे दो,
लौट आया है वो मदीने से....
आओ कुछ देर मेरी बाहों में,
मैं भी रोया नहीं महीने से....
बहुत खूब,सुंदर
Regards
बहुत सुंदर
क्या समंदर था उसकी आंखों में,
प्यास बढ़ती ही रही पीने-से....
अच्छी लगी आपकी लिखी यह पंक्तियाँ निखिल जी :)
निखिल जी,
दिल के बहुत करीब से लगी यह रचना
बधाई
आओ कुछ देर मेरी बाहों में,
मैं भी रोया नहीं महीने से....
चलो रोकर कुछ गम हल्का कर लें।
सहज और सुंदर रचना है. परंतु निश्चय ही आपसे इससे कहीं ज़्यादा की आशा रहती है. आखिरी शेर पसंद आया.
*चाँद ने जब से छुप के वार किया,
नज्म इक रिस रही है सीने से...
-सब से भारी यह शेर लगा
निखिल जी!
आप गज़लों के क्षेत्र में बहुत आगे निकल चुके हैं, इसलिए आपसे बहुत हीं उम्मीदें रहती हैं। इसलिए न कहें कि आपको व्याकरण से कोई लेना-देना नहीं है, नहीं तो सारी उम्मीदें टूट जाएँगी।
इस रचना की सबसे बड़ी खासियत मुझे यह लगी कि इसमें शब्दों का बड़ा हीं बढिया प्रयोग हुआ है , मसलन करीने, सीने, मदीने......
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
अब उम्मीदों को बिदाई दे दो,
लौट आया है वो मदीने से....
चाँद ने जब से छुप के वार किया,
नज्म इक रिस रही है सीने से...
वाह .....
"कवि की अलग-अलग मनः स्थितियों का मज़ा लीजिये...."
सच...आलोचना काव्य का आनन्द नहीं लेने देतीं....मैं तो काव्य प्रेमिका हूं...और इसी दृष्टि से रचना को देखती हूं....
मुझे आनंद आया....
निखिल जी
शुभ-कामनाएं
स-स्नेह
गीता पंडित
"अब उम्मीदों को बिदाई दे दो,
लौट आया है वो मदीने से...."
ये बंद कुछ समझ नहीं आया।
"चाँद ने जब से छुप के वार किया,
नज्म इक रिस रही है सीने से..."
चाँद के ऐसे तेवर भी होते हैं मालूम न थ॥
इनमें थोड़ा हेर फ़ेर की गुंजाइश है,यूँ कहें तो…
दिन न गुज़रा कोई करीने से,
जी मेरा भर गया है जीने से...
क्या समंदर था उसकी आंखों में,
प्यास बढ़ती ही रही पीने-से....
आओ कुछ देर मेरी बाहों में,
मैं भी रोया नहीं महीने से....
अब उम्मीदों को बिदाई दे दो
नज्म इक रिस रही है सीने से..
अवसाद के क्षणों को शिद्दटके साथ कविता में जिया है...ह्रदय की भावनाओं को कविता के माध्यम से उतारना अपने आप में अनूठा कार्य किया है...
डॉ. वेद "व्यथित"
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