आज हमने सत्रहवें क्रम की कवयित्री की कविता प्रकाशित की है, और आज ही हमें १८वीं कवित भी प्रकाशित करने का अवसर मिल गया। और संयोग यह है कि इस स्थान पर भी एक कवयित्री हैं। कवयित्री नीतू तिवारी पहली मर्तबा इस प्रतियोगिता में भाग ले रही हैं।
कविता- हूक उठती है
जब देखती हूँ
उन उदास, बेजान और बुझे चेहरों को
जो फिर एकबार झेलकर बेरोजगारी
की मार लौटते हैं, खाली हाथ, लटकाए अपने चेहरों को,
तो हूक उठती है,
हूक उठती है, हृदय की उन तंग गलियों में,
जहाँ केवल आधुनिकता का सर्वव्यापी परिणाम
'स्वार्थ' निवास करता है।
फिर से मन खींच जाता है,
तेज रफ्तार से भागती उस जिंदगी
में, जहाँ, हर तरफ़ लूट और सिर्फ़ लूट है।
इसी लूटमार में जब देखती हूँ, उन बेसहारा,
मिट्टी और गंदगी से लिपे-पुते बच्चों को
जो सिर्फ़ दो वक्त की सूखी रोटी के लिए फिरते हैं,
सर्पीली सड़कों पर मारे-मारे आवारा कुत्तों की तरह,
कभी हाथ फैलाकर कभी उन्हीं हाथों से
झपटकर करते हैं दिनभर में बस एक निवाले का जुगाड़।
फ़िर भी सोते हैं, मरते हैं, बेजान सड़कों पर
होकर निढाल आए दिन,
देखकर उनका यह हाल- हूक उठती है
उस निष्क्रिय हृदय में
जो हर पल
बस अपना पेट भरने की चाह में
रौंदता है, मानवता को
और हो जाता है,
फिर से निष्ठुर तो हूक उठती है.
आए दिन देखती हूँ, टीवी में फिर से
शहीद हुआ कोई जवान, हुई फिर बेवा कोई सुकन्या.
सुनती हूँ यूं ही बेमन कभी खबरें
तो पता चलता है, फिर
झोंक दी गई कोई बेटी दहेज़ की भट्ठी में,
मालूम चलता ही है, हर रोज यह
कि फिर बनी कोई बेटी, बहन, कोई अबला
शिकार उन वहशियों की हवस का,
जो बुझाने कुछ पलों की कामाग्नि
नष्ट करते हैं, अस्मिता एक नारी की,
छिन्न-भिन्न कर देते हैं, उसके अस्तित्व को,
कर देते हैं ख़ाक उसके सपनों को, आने वाली
जिंदगी, उसके भूत, भविष्य और वर्तमान को
झोंक देते हैं, कांच की तपती भट्ठी में,
तो हूक उठती है.
हूक उठती है, फिर उस स्वार्थी मन में,
उस नपुंसक हृदय में जो हरबार
बस यही सोच कर मौन हो जाता है, कि
जाने दो मेरे साथ तो नहीं हुआ न.
अभी कल ही की तो बात है
शायद आपने भी सुन ही ली होगी
ये गर्मागर्म ख़बर उड़ते-उड़ते कि-
पड़ोस में या शायद अपने ही घर में
छीन ली गई साँसे उस अजन्मी नन्हीं सी
जान से जो कल किसी की बेटी, बहन, पत्नी
और माँ बनकर चलाती एक भरे पूरे वंश को,
पढ़ ही लिया होगा एक सरसरी सी नज़र दौड़ाकर
अख़बार के किसी कोने में छपी उस ख़बर को जिसमें लिखा है-
"मिली है- एक गुदडे में लिपटी हुई नवजात कली
जिसे फूल बनने से पहले ही उखाड़ फेंका उसके माली ने"
बस फ़िर वही हूक उठती है.
पर क्या होगा इससे क्योंकि हमारी आत्मा तो मर चुकी है,
खो गया है हमारा जमीर प्रतिस्पर्धा की आप धापी में.
फ़िर सोचती हूँ, कि बस बहुत हो चुका ये नंगा नाच हमारी हैवानियत का,
हमारे स्वार्थ और हमारे लालच का
कोई तो हुंकार भरे इन बहारों की दुनिया में
क्योंकि बिना शोर तो कोई नहीं सुनेगा.
याद आती है एक बुद्धिजीवी की वो बात जिसमें लिखा है उसने-
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी चिंगारी, लेकिन आग जलनी चाहिए.
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ८॰१
स्थान- चौथा
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰१, ६॰४, ८॰१ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२
स्थान- बीसवाँ
तृतीय चरण के जज की टिप्पणी- वेदना को बिंब में कहने से काव्य निखर उठता। कविता कम कहानी ज्यादा।
कथ्य: ४/२॰५ शिल्प: ३/१ भाषा: ३/१॰५
कुल- ५
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
कथ्य ठीक लगा पर कविता मंच से दिए गए भाषण की तरह प्रतीत होती है। थोड़ा और निखार अपेक्षित है।
कविता कम कहानी अधिक है। केवल हूक उठना ही बहुत नहीं है। संवेदना दिखाकर आंसू बहाना कब तक चलेगा? जिन समस्याआें का जिक्र है कविता में वे हल कैसे होंगी? कौन करेगा पहल? किसका है इंतजार? कविता-कहानी ही लिखी जाती रहेगी?
बहुत ही अच्छी कविता है, उन्होने दोहरी बधाई क्योकि उनकी यह कविता युग्म 1000 वीं पोस्ट है।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी चिंगारी, लेकिन आग जलनी चाहिए.
-- ये पंक्तियाँ निदा फाज़ली की है (?) |
आपकी रचना सही है | सामाजिक वेदना का भोध करा रही है |
प्रयास करें कम शब्दों मे ज्यादा कहने का |
शुभकामनाएं
अवनीश तिवारी
अवनीश जी ये दुष्यंत कुमार की पंक्ति है।
जुरुरत से ज्यादा लम्बी कविता, बहुत कुछ समेटने की कोशिश, नयेपन का अभाव
लम्बी होने के बावजूद हूक उठा पाने में सक्षम एक अच्छी कविता
बधाई हो,और अवनीश जी,रविकांत जी सही कह रहे हैं,
आलोक सिंह "साहिल"
नीतू जी,
आपने कहा बिल्कुल ठीक है। पर आपने समाज की हर परेशानियों को एक ही कविता में लिखने के प्रयास में इसको काफी लम्बा बना दिया है व इसके असर को भी कम कर दिया है। जैसा कि जज ने भी कहा कि कहानी अधिक लग रही है, उस लिहाज से आपको मेहनत की ज़रूरत है। मुझे नहीं लगता कि कविता के आखिर में आपको दुष्यंत जी के शेर लिखने चाहिये थे। इससे ये कविता एक स्टेज पर सुनाने वाली कविता ज्यादा बन गई है।
बहुत ही अच्छी कविता है, शुभकामनाएं
Regards
बहुत मार्मिक कविता है बधाई
मुझे गद्यात्मक कवितायें बहुत कम पसंद आती हैं .
इस लिए कुछ नहीं कहना चाहूंगी.
१७ वें स्थान पर आने के लिए बधाई और आगे के लिए शुभकामनाएं
लम्बी होने के बावजूद हूक उठाने में सक्षम...
अच्छी कविता.....
बधाई..
स-स्नेह
गीता पंडित
bahut khub....... accha likha nitu je ,apke likhavat me dard or emotion hai
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