देश के बड़े से शहर में
बारह मंज़िला इमारत में
बालकनी वाले फ़्लैट में रहता हूँ।
ऊपर से मुख्य सड़क दिखती है।
नीचे सभी छोटे-छोटे दिखते है ।
बालकनी पर ही साइकल चलाता हूँ
और उसकी दीवारों के साथ फ़ुटबॉल खेलता हूँ।
नीचे भी एक लड़का मेरी तरह ही फ़ुटबॉल खेलता है।
लेकिन उसका नाम पापा को मालूम नहीं है।
कभी समय मिलेगा तो पूछूँगा।
अभी तो मैं
अपने कम्प्यूटर के चूहे पर सवार
दुनिया की सैर कर रहा हूँ
डिस्नीलैण्ड और पैरिस घूमा हूँ।
अभी सीर्फ़ पाँच साल का हूँ
लेकिन तीन भाषाएँ जानता हूँ।
पिताजी ने कहा
बड़ा होकर विदेश जाऊँगा तो काम आएँगी।
घर में चीन के भालू
फ्रांस के खिलौने
अमेरिका का वीडियो गेम हैं।
लेकिन खेलने का समय नहीं मिलता
सुबह पापा को जल्दी काम पे जाना होता है
शाम को मम्मी देर से दफ्तर से लौटती है
स्कूल से ज़्यादा समय
क्रेश में बिताता हूँ।
आज स्कूल में हमने पौधे बोए
टीचर बोली
इनसे दुनिया बचेगी
हरियाली आएगी
जब मैं घर आया
तो मम्मी से कहा
मुझे घर पर एक पेड़ बोना है
मम्मी ने कहा...
बेटा यहाँ पेड़ बोएँगे कैसे?
नीचे तो माटी है नहीं
जड़े कहाँ जाएँगी
और किसी तरह पेड़ लग भी गया तो
पत्ते उपर छत से टकराकर सूख जाएँगे...
(मैं थोड़ा रोया
फिर मम्मी ने वही कार्टून चलाया
जिसमें मेरा प्रिय जापानी हीरो
दुनिया को बचाता है)
यूनिकवि- गुलशन सुखलाल
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
बड़ों की महत्त्वाकांषा के बोझ तले दबे बचपन ,,,एवं पर्यावरण पर चिंता जताता ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,एक सुंदर ,,,,,लेख,,,,,,,,,,,
गुलशन जी,आप तो पूरे विश्वनागरिक हो गये...पर, आपको पढ़कर कुछ कुछ फील हमे भी आने लगा है....
सुंदर अभिव्यक्ति
आलोक सिंह "साहिल"
इस रचना का कथ्य दमदार लगा |
यदि शिल्प और बढिया हो जाए तो बहुत अच्छी रचना बन जाए |
इसके लिए धन्यवाद |
-- अवनीश तिवारी
मनु जी टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ!
मनु जी टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ!
ise to koi bhi padya nahi kahega ,atukaant ,nirthark dhang ,
nihaayat hi bakwaas ,hindyugm ke str ko giraane ka dukhad prayaas ,
vinay ji, shyam ji aage aayen ,ek taraf aaplogon ka adbhut samvedan sheel kaavya ,ek taraf yah thotha
saahity .
नीति जी, नीलम जी,
मुहीम में शामिल होने का धन्यवाद भी देना चाहता हूँ, और ये भी गुजारिश है के फिलहाल और लोगों का आवाहन न करें......ऐसा ना हो के यहाँ इस पोस्ट पर पचास तिप्पन्नियाँ हो जाएँ और अगली बार यहाँ पर "आधुनिक कविता " का स्कूल खुल जाए.....पर वैसे खुलना तो चाहिए......छंद , दोहा , ग़ज़ल , संगीत .और .............."" कामन सेंस "" !!!!!!!! मैं प्रक्रति का दिया उपहार मानता हूँ.....जिनमे कुछ कम होता है...उसे यहा पर उस्ताद लोग सीखा देते हैं.....पर महसूस करना तो कोई भी नहीं सीखा सकता......
नीलम जी,.........इत्ता ओपन काहे लिख दिया........??? पहले हल्का सा इशारा , फ़िर थोड़ा और स्पष्ट ....अगली बार ज़रा और......( शायरी में सामने वाले की सेंस को ऐसे देखा परखा जाता है...) .....इन्हें महज टिप्पणियाँ गिन कर कोई ग़लतफ़हमी हो गयी तो....??? कई बार उलटा ज्ञान मिल जाता है....
हाँ ,एक क्लास इस तरह की कविता की भी हो ही जाए....हो सक्या है के हमी ग़लत हो...
एक और उदाहरण......जैसे हुसैन ..या कोई भी.... माडर्न आर्ट बनाता है...उसे बिना समझे कितने ही लोग उस की देखा देखि....कला को ख़राब कर रहे हैं....एकदम वही हाल......... "खूबसूरत छंद मुक्त या मुक्त छंद ...जो भी है..मैं अन्तेर नही जानता.""........कविता के नाम पर उसकी आड़ में ....लोग स्वयम को कवि कहलवाने में कामयाब हो जाते हैं...
जज साहिब को कहाँ कथ्य लगता है..कहाँ भाव दीखते हैं....कहाँ कविता ...दम तोड़ती...उठती लगती है....मैं तो फिलहाल नही जान सका हूँ.....और चाहता भी नहीं के ऐसे लोग हमें नाप तौल करें
hum sirf aur sirf is kavita ke str
ki baat kar rahe hain,agli pichli baaton se humaara koi sarokaar nahi hai .
ये इतनी सारी मगज मारी और टाइम वेस्ट मैंने भी सिर्फ़ इस और .... " इस जैसी कविताओं " के लिए ही क्या है.....हो saktaa है के कहने का तरीका हमेशा की तरह कुछ उलझा हो,,,मुझे भी मालूम है.....के अगर कभी साल दो साल में मेरी भी कोई रचना अगर यहाँ छपी तो कितने एनी माउस आने है टांग खींचने के लिए......फ़िर भी एक अकेले के नहीं......ऐसे सब के ख़िलाफ़ बोल रहा हूँ.....जब की ये भी जानता हूँ के ,,,,,,,ज़्यादातर लोगों की तरह ..जो एक हलकी सी लाइन कविता और अकविता के बीच कभी कभी आती है...उसके अन्तेर को समझने में मैं भी अक्षम हूँ..........उस रेखा पर खडा होकर कविता का सही निर्णय लेना वाकई कठीण काम है..... par yahaan तो कुछ है ही नही.....
... रोचक व प्रभावशाली रचना है।
रचना अच्छी लगी।
बस मुझे "सुखलाल" जी के बारे में चिंता हो रही है। उनकी कविता आती नहीं कि विवाद आ जाता है।
आगे-आगे देखते हैं होता है क्या!!
-विश्व दीपक
बड़ी गहरी कविता है, कई स्तरों पर छूती है. पर यह आज और कल की सभ्यता का सच है. साधुवाद एवं आभार.
कविता मे जो कवि कहना चाह रहा है वो समझ आ रहा है पर प्रस्तुत करने का ढंग साधारण लगा , एक अच्छी कविता पर कुछ नयेपन की कमी
शिल्प अच्छा होता तो एक बहुत बढ़िया कविता बन सकती थी.. विषय अच्छा चुना आपने..
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