युवा कवि अरूण मित्तल अद्भुत एक वर्ष से भी अधिक समय से हिन्द-युग्म से जुड़े हैं और हिन्दी ग़ज़ल को साधने में प्रयासरत हैं। मुख्यरूप से छंदबद्ध कविता लिखने वाले अरूण मित्तल अद्भुत की हिन्द-युग्म में सम्मिलित पहली कविता आधुनिक शैली की थी। कवि की एक ग़ज़ल हम जनवरी माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की नौवीं रचना के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। अरूण की कविताएँ वेबजीन अनुभूति पर भी प्रकाशित होती रही हैं।
पुरस्कृत कविता- ग़ज़ल
हमेशा वो मेरी उम्मीद से बढ़कर निकलता है
मेरे घर में अब अक्सर मेरा दफ्तर निकलता है
कहाँ ले जा के छोड़ेगा न जाने काफिला मुझको
जिसे रहबर समझता हूँ वही जोकर निकलता है
मेरे इन आंसुओं को देखकर हैरान क्यों हो तुम
मेरा ये दर्द का दरिया तो अब अक्सर निकलता है
तुझे मैं भूल जाने की करूं कोशिश भी तो कैसे
तेरा अहसास इस दिल को अभी छूकर निकलता है
अब उसकी बेबसी का मोल दुनिया क्या लगायेगी
वो अपने आंसुओं को घर से ही पीकर निकलता है
निकलता ही नहीं अद्भुत किसी पर भी मेरा गुस्सा
मगर ख़ुद पर निकलता है तो फ़िर जी भर निकलता है
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ६, ७॰३५
औसत अंक- ६॰२८३३
स्थान- प्रथम
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७॰४, ७, ६॰२८३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰८९४४
स्थान- प्रथम
अंतिम चरण के जजमेंट में मिला अंक- ४
स्थान- नौवाँ
टिप्पणी- इस गजल को पढ़ने से आभास होता है कि यहाँ जीवन के गूढ़ अनुभव को रखने का प्रयास किया गया है पर उसके रूप और उसकी वस्तु का भी सवाल है। संवेदना का लक्ष्य गजल में भी उसके काव्यशास्त्रीय अनुशासन से भी उतना ही संपृक्त होता है जिसको भंग कर या जिसे अनदेखा कर अगर अपनी बात गजल में रखी जायेगी तो फिर वह गजल ही नहीं रह पायेगी। ऐसे छिछले अनुभव से बचने के लिये आवश्यक है कि हम दूसरों की भी अच्छी कविताओं पर गौर करें और अपने आस-पास घट रही छोटी-बड़ी चीजों के प्रति अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ भी सजग रखें ताकि इन्द्रियबोध का बल हममें नित्य बढ़ता रहे। यह अच्छे कवि में स्वभावत: होता है जिससे हमारी आत्मबद्धता और आत्ममुग्धता कपूर की तरह उड़ती रहती है और हम अपनी दुनिया में शेष दुनिया को शामिल करने का जोखिम और साहस उठा पाने को प्रेरित होते रहते हैं। यह अनुभव हमें कविता के उस वृहत्तर संसार से जोड़ने में सहायक होता है जो कविता का असली यानी उसका यथार्थवादी संसार है। मात्र कल्पना का योग देकर कोई सच्ची कविता या गजल नहीं रच सकता।
पुरस्कार- ग़ज़लगो द्विजेन्द्र द्विज का ग़ज़ल-संग्रह 'जन गण मन' की एक स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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30 कविताप्रेमियों का कहना है :
अब उसकी बेबसी का मोल दुनिया क्या लगायेगी
वो अपने आंसुओं को घर से ही पीकर निकलता है
निकलता ही नहीं अद्भुत किसी पर भी मेरा गुस्सा
मगर ख़ुद पर निकलता है तो फ़िर जी भर निकलता है
ये दो शेर अच्छे है पर मतले में दोफ़ाड़ होने का दोष है।याने पहली और दूसरी पन्क्ति में आपस में कोई संबंध ढूंढना मुश्किल है
हमेशा वो मेरी उम्मीद से बढ़कर निकलता है
मेरे घर में अब अक्सर मेरा दफ्तर निकलता है
अनाम जी,
आप जरा गौर करें मतला बिल्कुल स्पस्ट है इसमे वो का मतलब "दफ्तर" से है जिसे मैं हर रोज़ छोड़कर आता हूँ पर घर में भी मुझे दफ्तर के ही काम करने पड़ते हैं इसलिए "दफ्तर" हमेशा मेरी उम्मीद से बढ़कर निकलता है ....................
धन्यवाद मनु जी
............
अभी मनु जी ने एस एम् एस से बताया तो पता चला की मतले की दूसरी पंक्ति में कुछ शक है , जी हाँ इसमे से एक शब्द "ही" गायब हो गया है अर्थ भी उतना स्पस्ट नहीं हो पा रहा
ये पंक्ति है :
मेरे घर में ही अब अक्सर मेरा दफ्तर निकलता है
कृपया pathak ध्यान दे, ये टंकण की गलती है अब मैंने चेक कर लिया मुझसे ही भूल हुई है भेजते समय टाइप करने में.
अरुण अद्भुत
achhi hai lage raho mittal bhai....sab aap ke saath hain...
aaj ke insaan ka dard hai ye,kyunki wo aaj ghar ke liye waqt nahi nikaal pa raha hai...daftar ke kaam ke bojh se wo dab gaya hai aur apne ghar ki sari khusiyan bhul gaya hai to gussa aana to lazmi hai........
sabak hai iss kavita me aaj ke inssan ke liye ki kaam itna hai ki ghar bhi dafter lagne laga hai aaj har insaan ko.......samay nahi hai...
Hello ARUN ji bhot achi hai apki poem aap btot dil se likhte ho.
All are good.
मगर ख़ुद पर निकलता है तो फ़िर जी भर निकलता है
यह अन्य पंक्तियों से बड़ी लगी | " फ़िर " हटाया जाए तो ?
अवनीश
निकलता ही नहीं अद्भुत किसी पर भी मेरा गुस्सा
मगर ख़ुद पर निकलता है तो फ़िर जी भर निकलता है
अरूण जी,
बहुत ही बढिया गज़ल लिखी,
ये दो शे'र बहुत अच्छे लगे,
अब उसकी बेबसी का मोल दुनिया क्या लगायेगी
वो अपने आंसुओं को घर से ही पीकर निकलता है
सुमित भारद्वाज
मुझे भी २ शेर बहुत अच्छे लगे!बहुत-२ बधाई!
बहुत अच्छी रचना है. बधाई स्वीकार करें ..
निकलता ही नहीं अद्भुत किसी पर भी मेरा गुस्सा
मगर ख़ुद पर निकलता है तो फ़िर जी भर निकलता है
बहुत अच्छा शेर है और कहीं छूकर जाता है।
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल,,,,,,, सिर्फ़ ये कहने नही आया ,,,ये तो कोई भी कह देगा,,,
एक तो वही बात के पहले चरण के मेरे हिसाब से बामुश्किल दो ,,,,,और कहने को पाँच जजों द्बारा प्रथम स्थान दिए जाने पर भी ,,,,इसे नवां स्थान क्यूं,,,,,,???
ग़ज़ल में और तीसरे जज की टिप्पणी में तालमेल....???? किसी को कुछ समझ आया..????
सबसे पहली अनामी टिपण्णी,,,,,जिसका मुझे पहले ही पता था,,,के ये साहब सबसे पहले आयेंगे,,,,,,,,,,,,,!!!!!!!!!!१ अआने तो एक और भी थे,,,खैर,,,,,,,
माननीय अन्तिम जज साहब की मनोदशा,,,, मुझे तो स्पष्ट नज़र आने लगी है....आप लोग भी समझ सके तो,,,
और आपको कुछ नही कहूंगा अनामी जी,,,,,,पर अफ़सोस,,,,,,!!!!! मुझे आज चौथी मर्तबा कहना पड़ रहा है,,,की मुझे आपका पता है,,,,
तीन बार पहले भी स्पष्ट संकेत दिए हैं,,,,
sher sabhi laajwaab hain........
न देखूँ जज की मनोदशा, न बहर आदि मैं जानूँ
अद्भुत लिखी गज़ल अरूण ने, मैं तो केवल यह मानू
Dear sir,
Those were the most beautiful lines i've ever read.
You have an inherent quality of phrasing your feelings in a wonderful way.
Keep up the great stuff!!!
Kumar Chandrashekhar
likha badhiya hai
Gyanendra
Hindustan, Agra
ग़ज़ल के सभी शेर अपने आप में बहुत कुछ कहते हुवे हैं
बधाई अरुण जी !!
Arun ki kavitayen main kaafi samay se padh raha hoon ........ padh hi nahi raha sunta bhi raha hoon. bahut din baad is sher ne mujhe sochne par majboor kar diya ki ye bhi jindgi ka ek pahloo hai........
"अब उसकी बेबसी का मोल दुनिया क्या लगायेगी
वो अपने आंसुओं को घर से ही पीकर निकलता है
main arun ko bahut badhai deta hoon itni achi gajal ke liye. Arun han ye pratham.... sthan aur ninth se koi fartk nahin padta kam se kam is gajal ko kisi puraskaar ki jaroorat nahin hai .
Keep writing arun .. Best wishes for future.
अरुण जी ,
मैं मनु.........एस ,एम्, एस इसलिए के दिया था के मालूम था मुझे के ये ,,,टंकण त्रुटी है,,,
ये भी मालूम था के आप इसे मानेंगे,,,,,,,,,,,,इस पर जबरदस्ती परदा डालने की कोशिश नहीं करेंगे,,,,,, और क्या पता इस ,,, टाइपिंग मिस्टेक के चलते ही हम आपको पढ़ सके,,,,,अगर ये भी ना होती तो..............??????????????? शायद हम आपको आज पढ़ ही ना रहे होते,,,,, ..अन्तिम जज साहब को धन्यवाद दें,,,,और उस से पहले इस त्रुटी को,,,,शायद इसी की बदौलत हम आपको पढ़ पाये,,,,,,
अगर आप से ये गलती ना होती तो शायद आप बहुत पीछे होते,,,,,,,
हम से भी पीछे,,,,,,,,,,,,,
मनु जी,
इस परिणाम को पढ़कर कुछ सोच रहा था तो एक नायब, तथाकथित, छंदमुक्त आधुनिक कविता बन पड़ी शायद ये पढ़कर तीसरे जज महोदय मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित करवा दें :
एक जज प्रथम स्थान देता है,
दूसरा जज प्रथम स्थान देता है
एक तीसरा जज भी है,
जो न प्रथम स्थान देता है
न द्वीतीय स्थान देता है
वो दोनों जजों की धज्जियाँ उडाता है
मैं पूछता हूँ ये तीसरा जज कौन है
मेरे इस प्रश्न पर हिंद युग्म मौन है
?????????????????????????
अरुण जी,
बहुत अच्छी गजल है मुझे तो ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी जब आपने अर्थ स्पष्ट किया मुझे समझ में आ गई :
हमेशा वो मेरी उम्मीद से बढकर निकलता है
मेरे घर में ही अब अक्सर मेरा दफ्तर निकलता है
लीजिये मैंने टाइपिंग मिस्टेक भी ठीक कर दी ...........
आप का ब्लॉग भी देखा था अच्छा है पर अभी रचनाएँ कम है आप कुण्डलिया भी तो लिखते थे जो मैंने कई बार चरखी दादरी में दैनिक भास्कर में और स्थानीय समाचार पत्रों में पढ़ी थी ...... मैं फ़िर पढ़ना चाहती हूँ ........... आपको बधाई और हिन्दयुग्म को धन्यवाद इतनी अच्छी रचना को स्थान देने के लिए. .......
रानी शर्मा
ye aam aadmi ka dard hai jo adbhut ki kalam se nikalta hai,
jo subah 9 se 5 ki rassi pe joker ki tarah chalta hai.
aap ki tarah 1 gehrai wali kavita
bahut bahut wadhai.
varun saroha
joker=aam aadmi
अरुण जी , आपको इस ग़ज़ल के बाद मैं एक सम्पूर्ण कवि के रूप में देखता हूँ ...
मैंने आपके काव्य के कई रंग महसूस किये हैं ....और ये रंग : वाह !!
मैं नहीं जानता कि शायरी के क्या नियम या पैमाने आधारित हुए हैं , पर इतना जरूर कहूँगा कि ये ग़ज़ल हर आम / ख़ास इंसान के जेहन में पूरी कि पूरी उतरती है ...
क्या कहा है :
अब उसकी बेबसी का मोल दुनिया क्या लगायेगी
वो अपने आंसुओं को घर से ही पीकर निकलता है "
बधाइयां .
तुझे मैं भूल जाने की करूं कोशिश भी तो कैसे
तेरा अहसास इस दिल को अभी छूकर निकलता है
एक शेर अर्ज है ,किसी महान शायर का ही है कि
रोज सोचता हूँ ,भूल जाऊँगा उसे ,
रोज यह बात ,भूल जाता हूँ मैं ,
बधाई अच्छी लेखनी के लिए ,
बढ़िया शेर लिखा नीलम जी आपने कमेंट में:
रोज सोचता हूँ ,भूल जाऊँगा उसे ,
रोज यह बात ,भूल जाता हूँ मैं ,
वाह!!!
poems....seem to be your passion...nd u hv made ur passion so constuctive..tht it is adding to creativity....so always keep up the good work...
Adbhut, I dont hav so much knowledge about poetry so I wud like to know that which is right ("fir" lagaya jaye ya hataya jaye)
All are good.
मगर ख़ुद पर निकलता है तो फ़िर जी भर निकलता है
यह अन्य पंक्तियों से बड़ी लगी | " फ़िर " हटाया जाए तो ?
............RKB
प्रिय राजीव
अच्छा लगा तुमने प्रश्न तो किया,
वैसे पंक्ति बिना "फ़िर" शब्द के भी अर्थ दे रही है परन्तु "फ़िर" शब्द से एक प्रभाव बन रहा है तथा अभिव्यक्ति की एक और दिशा खुल रही है,
ख़ुद पर गुस्सा निकलने के दो ढंग हो सकते हैं पहला सामान्य गुस्सा और दूसरा "जी भरकर" , इन दोनों में अन्तर प्रर्दशित करने के लिए ही इस शेर में "फ़िर" शब्द का प्रयोग किया है ..... आशा है इस से पहले भी जिन्होंने ये प्रश्न किया था वो भी सहमत होंगे वैसे इस पर अलग अलग विचार हो सकते हैं.
वैसे तुम्हारा विशेष धन्यवाद प्रतिक्रिया और प्रश्न दोनों के लिए.............
dosti ki tadap ko dikhaya nahi jata,
dil me lagi aag ko bhujaya nahi jata,
kitni bhi duri ho dosti mein,
aap jaise dosto ko bhulaya nahi jata. ....
Kya baat hai Abdhut ...ki gehraiyon mein...
Continue ...providin us poetry with ur innerself....
keep rockin 4evr nd evr.........
achcha prayaas hai....shubhkaamnayen...
gayatree arya
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