ख्वाब मेरी आँखों को बस खुशनुमा देते रहें,
रोज़ तकरीरें मुझे ऐ मेहरबाँ देते रहें
सारी खुशबू आपकी और खार हों मेरे सभी
और कितने इश्क के हम इम्तिहाँ देते रहें
मुजरिमों में नाम कितना भी हो शामिल आपका
आप अपनी बेगुनाही के बयां देते रहें
कर्जदारों के न कर्जे अब चुका पाएंगे हम
बा-खुशी कुर्बानियां अपनी किसाँ देते रहें
आ गयी है सल्तनत फौलाद की अब गांव में
या ज़मीं दे दें इन्हें या अपनी जाँ देते रहें
कायदों का मैं नहीं हों कायदे मेरे गुलाम
फलसफा ये मुन्सिफों को हुक्मराँ देते रहें
(फलसफा = दर्शन, philosopy, मुंसिफ = न्यायधीश, judge तकरीरें = वक्तव्य, speeches)
--प्रेमचंद सहजवाला
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
कायदों का मैं नहीं हों कायदे मेरे गुलाम
फलसफा ये मुन्सिफों को हुक्मराँ देते रहें
क्या बात है प्रेमचन्द जी, हाकिमों की तानाशाही का सुन्दर चित्रण है. आज लोकतन्त्र के बाबजूद हाकिम अपने को मालिक मानकर ही व्यवहार करते हैं.
प्रेमचंद सहजवाला जी
आपकी गजलो का मै दीवाना हो चुका हूँ
आप बहुत ही बढिया लिखते हो।
काफिया और रदीफ दोनो ही अच्छी तरह निभा रखे है।
सुमित भारद्वाज।
प्रेमचंद सहजवाला जी---
आपको दी खुदा ने गज़ल लिखने की हुनर
पाठकों को आप यूँ ही फलसफा देते रहें।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
सारी खुशबू आपकी और खार हों मेरे सभी
और कितने इश्क के हम इम्तिहाँ देते रहें
बहुत खूब
आ गयी है सल्तनत फौलाद की अब गांव में
या ज़मीं दे दें इन्हें या अपनी जाँ देते रहें
बेहतरीन गजल !
बहुत खूब हर बार की तरह....
अच्छी गज़ल । किसान के लिए किसां का प्रयोग..यह तो छंदशास्त्री ही बता सकते हैं किंतु पढ़ने में थोड़ा अटपटा लगा...इसलिए लिख दिया..
अच्छी लगी आपकी गजल
बहुत खूब.....
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