आई आई टी के आई॰टी॰-बी॰एच॰यू॰ संस्थान में हिन्द-युग्म पहली दफा दाखिल हो चुका है। निखिल सचान नामक रचनाकर मई माह की यूनिकवि प्रतियोगिता से हमें मिले हैं जिनकी कविता 'वो अल्हड़ छोरी' नवें पायदान पर आई है।
निखिल सचान का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के फ़तेहपुर जिले में हुआ है। बचपन से ही इनकी हिन्दी साहित्य में विशेष रुचि रही है। छठवीं कक्षा से इन्होंने हिन्दी कवितायें लिखना प्रारम्भ कर दिया था। अभी ये आई॰टी॰-बी॰एच॰यू॰ ,वाराणसी में इलेक्ट्रानिक्स अभियान्त्रकी से बी.टेक. के तृतीय वर्ष के छात्र हैं। इनकी थियेटर में विशेष रुचि है और ये कुछ हिन्दी नाटकों का डाइरेक्शन कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त कई वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में ये यूनीवर्सिटी स्तर , प्रदेश स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर कई बार प्रथम पुरुस्कार प्राप्त कर चुके हैं।
पुरस्कृत कविता- वो अल्हड़ छोरी
वो अल्हड़ छोरी जब भी हंसकर
आँखें गोल नचाती है
वो गुणा-भाग से चिढ़कर पगली
जब नाखून चबाती है
बालों के लट की मूछें जब
उसको अब तक भाती हैं
वो मुह बिचकाकर जामुन जब
नीले अधरों से खाती है
तब तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी, आँखें मेरी
उसकी चाटुक बन जाती हैं .......
वो अल्हड़ छोरी जब भी
हल्दी का उबटन रचवाती है
बाँहों तक मेंहदी भरकर
चूहिया जैसी इठलाती है
वो आँचल के कोनों को जब
दांतों से सिलने लगती है
जब पोने-पोने पैरों से
झरने से लड़ने लगती है
तब-तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी, आँखें मेरी
उसकी चाटुक बन जाती हैं .....
वो अल्हड़ छोरी जब भी
बगिया में अमिया झरवाती है
वो खाए कम नाचे ज्यादा
क्या चोखा स्वांग रचाती है
वो रातों को छत पर लेटी
जब तारे गिनने लगती है
औ गिनती में गलती पे कुढ़
गिनने दोबारा लगती है
तब-तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी, आँखें मेरी
उसकी चाटुक बन जाती हैं .....
वो बाबा की बातों से चिढ़ जब
मोटे आँसू रोती है
अम्मा की गोदी में छिप
घंटों मनुहारें लेती है
जब दो पैसे के कम्पट से
खुश होती है, न रोती है
जब काला खट्टा खा-खा के
कुछ भी बोलो, कर देती है
तब-तब इस पगले दिल से
मेरे छत्तिस की ठन जाती है
नजरें मेरी, आँखें मेरी
उसकी चाटुक बन जाती हैं .....
वो छोटी सी मटकी लेकर
जब कत्थक करती आती है
अनजाने में पल्लू को
उस चोली से लटकाती है
जब लगे घूरने लौंडे तो
चट से गाली चिपकाती है
जब छड़ी नीम की थाम वो पगली
घंटों दौड़ लगाती है
तब-तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी आंखें मेरी
चाटुक उसकी बन जाती हैं
वो मौसम की पहली बारिश में
जब उत्पात मचाती है
छोटी-छोटी कश्ती को वो
हर तलाब बहाती है
जब उसके होंठों पर बारिश की
खट्टी बूंद पिघलती है
फ़िर जीभ निकाले पगली वो
जब बरसातों को चखती है
तब तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी आंखें मेरी
चाटुक उसकी बन जाती हैं
वो खड़ी सामने शीशे के
जब अपने पर इतराती है
पऊडर की पूरी डिबिया
उन गालों पर मलवाती है
फ़िर ज्यादा लाली से चिढ़कर
होंठों पर झीभ नचाती है
सपनों की प्यारी गुड़िया
हरछठ माई बन जाती है
तब तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी आंखें मेरी
चाटुक उसकी बन जाती हैं
वो पड़ोस के छोरे को
जब छिप कर देखा करती है
और चोरी पकड़ी जाने पर
दिन भर शर्माया करती है
जब दुष्ट सहेली से विनती कर
खत लिखवाया करती है
और बदले में उसको अपनी
दो हरी चूड़ियां देती है
तब-तब इस पगले दिल से मेरे
छत्तिस की ठन जाती है
नज़रें मेरी आंखें मेरी
चाटुक उसकी बन जाती हैं
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ६, ७॰३, ८॰२५
औसत अंक- ६॰८८७५
स्थान- प्रथम
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ३, ४, ६॰६, ६॰८८७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰१२१८७५
स्थान- नौवाँ
पुरस्कार- शशिकांत 'सदैव' की ओर से उनके शायरी-संग्रह दर्द की क़तरन की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
मस्त-बिंदास रचना है।---
नीले अधरों--------पोने-पोने पैरों से---------चोखा स्वांग------काला खट्टा खा खा के---------खट्टी बूंद----दो हरी चूड़ियाँ--------जैसे शब्दों ने ---अल्हड़ छोरी को खूबसूरत बना दिया है।
निखिल---
तुम्हारी -वो अल्हड़ छोरी--पढ़कर---हमारी -२५ वर्ष पहले की--- वो अल्हड़ छोरी--याद आ गई।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
wah allad chori ki masumiyat,aur allad pan ki khubsurati ka jawab nahi,nikhal ji bahut badhai.
Wah nikhil ji padhkar dil apne aap wah wah kar utha
kamaal likhte ho itni si umar main ye haal hai to aage to aapke naam ke jhande gaadh diye jayenge
वो अल्हड़ छोरी जब भी
बगिया में अमिया झरवाती है
वो खाए कम नाचे ज्यादा
क्या चोखा स्वांग रचाती है
वो रातों को छत पर लेटी
जब तारे गिनने लगती है
औ गिनती में गलती पे कुढ़
गिनने दोबारा लगती है
बहुत जीवन्त कविता है निखिल जी
बधाई!
जब दो पैसे के कम्पट से
खुश होती है, न रोती है
जब काला खट्टा खा-खा के
कुछ भी बोलो, कर देती है
तब-तब इस पगले दिल से
मेरे छत्तिस की ठन जाती है
नजरें मेरी, आँखें मेरी
उसकी चाटुक बन जाती हैं .....
निखिल जी उत्तम, बहुत उत्तम! बधाई
साथ ही महंगाई का भी ध्यान रखा होता भाई
दो पैसे मे कोई कम्पट नहीं आता, न मिठाई
लगता है, आज की छोरियों की आपने देखी नहीं ढिटाई.
आखिर लिखवा ही दी अल्लहड़ छोरी ने कविता आपसे...
:)
ये कुमार विश्वास की "इक पगली लड़की के बिन" की पैरोडी है.....
मगर कहीं-कहीं उनसे भी अच्छी लगती है....
अलहड़ चोरी जैसी ही अल्हड और मस्त रचना है |निखिल जी और हिन्दयुग्म को नया मुकाम हासिल कराने पर दोनों को हार्दिक बधाई
जितना मुझे स्मरण है - कुमार जी के "एक पगली लड़की के बिन " की श्रेणी की तो लगती है |
लेकिन किसी से प्रेरित हो कर कुछ नया , बेहतर लिखना , उसे आगे बढ़ाना कोई बुरी बात नही |
यदि मौका मिले तो इसे जरुर से कंही पर गाना | बहुत ही सुंदर रचना है |
अनेक अनेक बधाई |
-- अवनीश तिवारी
बधाई स्वीकार करें निखिल जी,सुंदर लिखा है आपने
आलोक सिंह "साहिल"
agar aap apni khud ki shaili banaye to jyada achcha.
क्या बात है बहुत बढ़िया. nikhil ... ये ठेठ अंदाज़ lajavaab लगा मुझे, उस alhad लड़की की तस्वीर बिल्कुल सामने आ गयी, बहुत बहुत बढिया
शाब्बाश ! निखिल !! शाब्बाश !!!
अरे यार! ज़रा इस अल्हड छोरी का पता तो बता !!!
बेशक एक उम्दा रचना !!
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