घर में घुप्प अंधेरा था...
रात के एक बजे
तेज-तेज रोने की आवाज़
वो भी एक मर्द की!
अंधेरे और सन्नाटे के साथ
बड़ी भयंकर बन गई थी
और उस पर थी भी आदिम...
....उसकी आवाज़!
पड़ोसियों में जिनकी नींद खुली
वे सहानुभूति और जिज्ञासा लिए
उसके दरवाजे पर पहुंचे
जानना चाहा रोने की वज़ह
वह लगातार उसी तरह
फूट-फूट कर...
बड़ी देर तक रोता रहा
फिर रोते हुए ही बताया
कि वह अपनी आख़िरी मौत का
मातम मना रहा है!
लोगों का कौतूहल और बढ़ा.....
उसने आगे बताया
िक खुद के विखण्डित टुकड़ों को
जब वह समेटने और जोड़ने में
असफल रहा तो...
बारी-बारी...उन्हें मारने लगा
और आज... जिसे उसने ख़त्म किया है
वह उसका आख़िरी हिस्सा था....
अन्त में वह चीखते हुए पूछा---
'अब उसका क्या होगा?'
और फिर रोने लगा..
वह रात भर एक ही
दर्द भरे लय में रोता रहा
थक-हार कर....जमा लोग भी
अपने-अपने घरों को चले गए
अगली सुबह सचमुच
वह मरा हुआ पाया गया!!
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
और आज... जिसे उसने ख़त्म किया है
वह उसका आख़िरी हिस्सा था....
अन्त में वह चीखते हुए पूछा---
'अब उसका क्या होगा?'
और फिर रोने लगा..
वाह अभिषेक जी! क्या बात है!
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उसने आगे बताया
खुद के विखण्डित टुकड़ों को
जब वह समेटने और जोड़ने में
असफल रहा तो--
बारी-बारी-----उन्हें मारने लगा
और आज--जिसे उसने खत्म किया है
वह उसका आखिरी हिस्सा था--।
अभिषेक जी-
मैने सुना है कि आदमी किश्तों में मरता है-------।
----और यह भी सच है कि आज की आबोहवा ने
आदमी को
किश्तों में विखण्डित कर दिया है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
भावों की तीव्रता के चलते कविता उतनी अच्छी चाहे न भी बनी हो पर भाव ह्रदय विदारक से हैं...
िक खुद के विखण्डित टुकड़ों को
जब वह समेटने और जोड़ने में
असफल रहा तो...
बारी-बारी...उन्हें मारने लगा
और आज... जिसे उसने ख़त्म किया है
वह उसका आख़िरी हिस्सा था....
पाट्नीजी, बहुत अच्छा, यथार्थ चित्रण! आज आदमी खुद के विखण्डित टुकडों को सहेजने और जोड्ने में असफ़ल रहने पर भी मारने के लिये तैयार नही है क्योकि वह किसी भी कीमत पर किसी की भी जान लेकर मर-मर कर भी जीना चाहता है, उसमे मरने की हिम्मत नहीं है और जीने का जोखिम नहीं लेना चाहता, और बिना जोखिम के जीना संभव नहीं है, दुख की बात यह है कि खुल कर रो भी नहीं पा रहा बनावटी मुस्कराहट, बड्प्पन दिखाती गंभीरत और नकली विद्वता को चिपकाये फ़िर रहा है.
कि वह अपनी आख़िरी मौत का
मातम मना रहा है!
लोगों का कौतूहल और बढ़ा.....
उसने आगे बताया
िक खुद के विखण्डित टुकड़ों को
जब वह समेटने और जोड़ने में
असफल रहा तो...
बारी-बारी...उन्हें मारने लगा
और आज... जिसे उसने ख़त्म किया है
वह उसका आख़िरी हिस्सा था....
अन्त में वह चीखते हुए पूछा---
'अब उसका क्या होगा?'
ह्र्दय विदीर्ण करने वाला चित्रण....
अभिषेक जी आपकी कविता एक कहानी लगी , आज के मनुष्य जीवन की | हम लोग टुकडो में ही तो जीते है ,और कितनी बार मरते है |
bhav uttam hain, par kavyatmakata ki kami hai, waise aapki kavitayen hamesha naye aur alag bhav lekar aati hain. Kavita me innovation karte rahiye.
गहरी रचना ....अभिषेक
खुद के विखण्डित टुकड़ों को
जब वह समेटने और जोड़ने में
असफल रहा तो...
बारी-बारी...उन्हें मारने लगा
और आज... जिसे उसने ख़त्म किया है
वह उसका आख़िरी हिस्सा था....
अभिषेक ! ऐसा मत लिख यार !
सीधा दिल में घाव कर देते हो !!!
अंदर तक समां गई.......बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
Please don't write such extreme poems. When these lines will suddenly haunt somebody.....will the person be able to take it peacefully.?
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