जून माह की प्रतियोगिता के में दूसरे चरण के निर्णय के बाद यह कविता ११वें स्थान पर थी, परंतु अंतिम चरण के ज़ज़मेंट के बाद जब दो कविताएँ दूसरे स्थान पर आ गईं तो इसे दसवाँ स्थान मिल गया। चूँकि यह तीसरे दौर में नहीं पहुँच पाई थी, इसलिए रिज़ल्ट-कार्ड में केवल २ चरणों के अंक हैं।
कविता- ज़ुदाई की शामें
कवयित्री- दिव्या श्रीवास्तवा, कोलकाता
चलो, उन शामों की बातें करें..
जब हम-तुम दूर-दूर
तनहाई या भीड़ में घिरे होंगे
हम होंगे इधर, तुम होगे वहाँ...
स्मृति के फाटक पर दस्तक देंगीं
आज की शामें,
जिन शामों की लालिमा-पीलिमा में बिखरे
पड़े हैं, हम दोनों के हास्य-रुदन
हाथ थामे विचरते हुए कि
अधूरी तस्वीरें, बेसुरे गाने लबों
से फूटते-लजाते हुये, बिन पहचानी गलियों में
पूछ-पूछ कर भटकते नजारे
और जाने कितनी ही अनछुई मिठास भरी यादें
जिनके स्मरण से ही नैन मुस्कुरा देंगे
हम दोनों के, भले ही..
हम होंगे इधर, तुम होगे वहाँ...
बरस बीतेंगे, फासले होंगे ही होंगे
मिलन की आस, बिछोह की विरह
घुल कर शायद नयी भावना का
आविष्कार करें, निज जीवन
के दैनिक कार्यों से निवृति हो..
हर शाम वायु की सरसराहट में
सूरज के डूबते हुये अक्स में
निशि के घटते-बढ़ते आकार में
एक क्षण को भी तेरी महक छू जाये तो..
लम्हा-लम्हा प्रकृति की ताल पर
थिरक उठेगा, बाग-बाग डाल-डाल तेरी
अनसुनी आवाज से चहक उठेगा
मेरे हृदय के सम्प्रेषण से
तेरी हर शाम भी खिल उठेगी
मेरे दोस्त, उस पल भी
हम होंगे इधर, तुम होगे वहाँ...
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ७, ७॰५
औसत अंक- ६॰८३३३
स्थान- नवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰९, ६॰२५, ७, ६॰८३३३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰९९५७५
स्थान- छठवाँ
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पुरस्कार- कवि कुलवंत सिंह की ओर से उनकी पुस्तक 'निकुंज' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता बेहद मनोरंजक है..............
एकदम हवा से भी हल्की फुलकी....
अच्छा लगा कविता पढ़ कर...
बधाइयाँ
दिव्याजी,
कविता सचमुच बड़ी आसान है.......लेकिन मुझे कुछ शिल्पगत त्रुटियाँ नज़र आयीं............".बिछोह की विरह " क्या होता है....दोनो एक ही बातें हैं......पहली बार आपकी कविता पर टिपण्णी कर रह हूँ इसीलिये इतना इशारा ही काफी है......बाक़ी प्रेम का मर्म आपको ख़ूब समझ आता है...ये तय है॥
निखिल आनंद गिरि
अच्छी कविता है..अच्छा लगा कविता पढ़ कर...
बधाइ..
कविता मनॊरंजक तॊ है परन्तु जुदाई का गम जाहिर नहीं हॊ पाया।
अच्छी रचना है, प्रयास जारी रखें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
कुछ उपमाएँ बहुत मनमोहक हैं-
स्मृति के फाटक, शामों की लालिमा-पीलिमा।
'बिछोह की विरह' के प्रयोग पर पुनः विचार करें।
कविता संतुष्ट नहीं करती।
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