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Sunday, July 29, 2007

चाँद और धब्बा (कुछ क्षणिकाएँ )


तुम्हारी चुड़ी के कुछ टुकड़े
सेफ में संभाल रखे हैं मैने,
हर दिन
दीवार पर
उनके सहारे
खुद को पाक-साफ करता हूँ।
धोकर अपने खून से
तुम्हारे खून का धब्बा-
कोसता हूँ खुद को,
कोसता हूँ उस पल को
जब
मेरे चाँद में धब्बा दीखा था मुझे।
_______________________

कभी
चुटकी लेकर कहा था
एक प्रेमी ने प्रेमिका से-
आज चाँद तुमसे ज्यादा हसीन है।
तब से उसकी सजा
चाँद भुगत रहा है।
चुल्हे की आग से
बदन पर फफोले आ गए हैं,
हुस्न का गुस्सा अब
उसके धब्बों में झलकता है।
_________________________

दिन भर खुद को बेचता हूँ
और रात को
सिकुड़कर चाँद हो जाता हूँ।
जानता हूँ जिस्म पर धब्बे हैं
लेकिन
महिने में एक दफा हीं तो
दीखते हैं सारे ।
________________________________


दिवाली हो या ईद -
हिंदू-मुस्लिम
चाँद को साक्षी मान
इंसानियत की बलि देते हैं,
और इसी अपराधबोध से
छुपता जाता है चाँद
अपने हीं धब्बों के पीछे।

__________________________________

जब से शहर चकाचौंध हुआ है-
चाँद आराम से सोता है,
अपने बदन के मैले-कुचैले धब्बों को
हर रात
फूटपाथ पर फेंक देता है।
खबर मिली है कि
कल रात गाड़ी के नीचे आकर
कुछ अनचाहे धब्बे चल बसे।
अच्छा हीं हुआ
आखिरकार
बोझ थे वो-
दिन में चाँद पर , रात में धरती पर।
________________________________


बूढी नानी सूत कातती है
चाँद पर ,
कपड़े बुन ले तो ले आऊँगी-
कहकर तू
साहुकार से उधार लेने गई थी।
माँ ! देख अब
ढेर सारे कपड़े हैं मेरे पास ,
हैं ढेर सारे पैसे भी,
निगोड़े साहुकार का कर्ज चुका दूँगा मैं,
बस तू चाँद से वापस आ जा।

तू मेरे लिए
धब्बॊं वाली नानी को छोड़कर
वापस आएगी ना , माँ !
____________________________

चाँद जला डाला,
धब्बे गुम हो गए,
अब
जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।
__________________________________

-विश्व दीपक 'तन्हा'

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23 कविताप्रेमियों का कहना है :

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

सबसे पहले एक छोटी सी कमी की ओर् ध्यान दिलाना चाहूंगा। क्षणिकाएं कहीं कहीं क्षण में न रहकर कुछ लम्बी खिंच गई हैं। हाँ, भाव पक्ष में वहाँ भी कमी नहीं आई, लेकिन वह कविता लगने लगी, क्षणिका नहीं। अब कुछ मेरी पसन्द-
धोकर अपने खून से
तुम्हारे खून का धब्बा-
कोसता हूँ खुद को,
कोसता हूँ उस पल को
जब
मेरे चाँद में धब्बा दीखा था मुझे।

चुल्हे की आग से
बदन पर फफोले आ गए हैं,

छुपता जाता है चाँद
अपने हीं धब्बों के पीछे।

आखिरकार
बोझ थे वो-
दिन में चाँद पर , रात में धरती पर।
बूढ़ी नानी वाली क्षणिका कविता हो गई है। लेकिन है बहुत अच्छी।

चाँद जला डाला,
धब्बे गुम हो गए,
अब
जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।
ये मुझे सबसे अच्छी लगी। हाँ, एक विषय पर इतना लिख पाने के लिए भी बधाई। मैं तो एक विषय पर इतनी क्षणिकाएँ नहीं लिख पाता।

Anonymous का कहना है कि -

धोकर अपने खून से
तुम्हारे खून का धब्बा-

दिन भर खुद को बेचता हूँ
और रात को
सिकुड़कर चाँद हो जाता हूँ।
जानता हूँ जिस्म पर धब्बे हैं
लेकिन
महिने में एक दफा हीं तो
दीखते हैं सारे ।



बोझ थे वो-
दिन में चाँद पर , रात में धरती पर।

चाँद जला डाला,
धब्बे गुम हो गए,
अब
जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।

ये कविताएँ हैं दीपक भाई, क्षणिकाएँ नहीं , ये भी उतनी ही देर तक असर करतीं हैं जितनी देर एक कविता करती है ।
काफ़ी अच्छी बात है कि हर बार आप कुछ नया लेकर आते हैं …ऊपर्युक्त पंक्तियाँ विशेष रूप से अच्छी लगीं । बधाई ।

शोभा का कहना है कि -

दीपक भाई
क्षणिकाएँ बहुत सुन्दर हैं । मैं गौरव की इस बात से सहमत हूँ कि
थोड़ी लम्बी हो गई हैं । फिर भी अपनी अनुभूति की छोटी सी
इस अभिव्यक्ति के लिए बधाई ।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

चाँद जला डाला,
धब्बे गुम हो गए,
अब
जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।....मुझे सबसे अच्छी लगी।

बहुत सुन्दर हैं...बधाई तन्हा जी...

सुनीता शानू का कहना है कि -

क्षणिकायें वाकई बहुत खूबसूरत है तनहा जी...
सभी पसंद आई किसी एक का जिक्र करना कुछ अजीब सा महसूस हो रहा है...

सुनीता(शानू)

Mohinder56 का कहना है कि -

तन्हा जी मानसिक विचार मन्थन कर के आपने यह क्षणिकाये लिखी और निश्च्य ही बहुत सुन्दर बन पडी हैं..

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

बहुत सुन्द रचनायें हैं विश्वदीपक जी। रचना का अंत आप जिस खूबसूरती से करते हैं वह आपकी कविता पर पकड को दर्शाता है। इन् पंक्तियों नें भीतर तक स्पर्श किया:

"कोसता हूँ खुद को,
कोसता हूँ उस पल को
जब
मेरे चाँद में धब्बा दीखा था मुझे।"

"चुल्हे की आग से
बदन पर फफोले आ गए हैं,
हुस्न का गुस्सा अब
उसके धब्बों में झलकता है।"

"जानता हूँ जिस्म पर धब्बे हैं
लेकिन
महिने में एक दफा हीं तो
दीखते हैं सारे ।"

"और इसी अपराधबोध से
छुपता जाता है चाँद
अपने हीं धब्बों के पीछे।"

"अच्छा हीं हुआ
आखिरकार
बोझ थे वो-
दिन में चाँद पर , रात में धरती पर।"

"तू मेरे लिए
धब्बॊं वाली नानी को छोड़कर
वापस आएगी ना , माँ !"

"जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।"

कविता का अंत करना सबसे दुष्कर कार्य है, अन्यथा सारी सोच वृथा हो जाती है। आप पारंगत हैं इस दिशा में..

*** राजीव रंजन प्रसाद

Admin का कहना है कि -

रचना के भाव तॊ बेहतर हैं परन्तु कुछ नया नहीं है। पहले तॊ एसा लगा कि नकल है परन्तु फिर प्रतीत हुआ कि घुमा फिरा के पहले जैसी बात ही कही गई है।

Anonymous का कहना है कि -

बिंबों के मध्यम से आपने अपनी शिकायतों को अच्छी तरह से दिखाया है........



चाँद जला डाला,
धब्बे गुम हो गए,
अब
जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।

बधाइयाँ

anuradha srivastav का कहना है कि -

दिवाली हो या ईद -
हिंदू-मुस्लिम
चाँद को साक्षी मान
इंसानियत की बलि देते हैं,
और इसी अपराधबोध से
छुपता जाता है चाँद
अपने हीं धब्बों के पीछे।
प्रभावी है।

Anupama का कहना है कि -

yahaan par deri se pahuchi hu....magar ab jaana kya miss kar rahi thi.....har kshanika aachi likhi gai hai...keep it up

Gaurav Shukla का कहना है कि -

दीपक जी,

आपका इंतजार रहता है हमेशा, क्षमा चाहूँगा कि इस बार मैं ही देर से पहुँचा
एक विषय पर इतनी भिन्न "कवितायें" आपकी अद्भुत क्षमता औअर विलक्षण प्रतिभा की ही परिचायक हैं
हर दृष्टि से उत्तम हैं सभी.
हर क्षणिका को आपने पूरे न्याय से समाप्त किया है

"तुम्हारी चुड़ी के कुछ टुकड़े
सेफ में संभाल रखे हैं मैने,
हर दिन
दीवार पर
उनके सहारे
खुद को पाक-साफ करता हूँ।"

"चुल्हे की आग से
बदन पर फफोले आ गए हैं,
हुस्न का गुस्सा अब
उसके धब्बों में झलकता है।" बहुत सुन्दर तनहा जी, वाह

"जानता हूँ जिस्म पर धब्बे हैं
लेकिन
महिने में एक दफा हीं तो
दीखते हैं सारे ।

"दिवाली हो या ईद -
हिंदू-मुस्लिम
चाँद को साक्षी मान
इंसानियत की बलि देते हैं,"....... इस बिम्ब पर चर्चा करूँगा आपसे

"बोझ थे वो-
दिन में चाँद पर , रात में धरती पर।"

"तू मेरे लिए
धब्बॊं वाली नानी को छोड़कर
वापस आएगी ना , माँ !"........खूबसूरत अंत किया है आपने

"जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।"

आनन्द आ गया, बहुत सुन्दर दीपक
अभिनंदन

सस्नेह
गौरव शुक्ल

Anonymous का कहना है कि -

जब से सूरज हुआ हूँ
लोग उबलते हैं
लेकिन कोसते नहीं।
ye panktiyan kitni khubsurat kintu satya hain.. kai dino baad koi rachna dil per itna prabhav chhod rahi hai.

गीता पंडित का कहना है कि -

तन्हा जी...

क्षणिकाएँ बहुत सुन्दर हैं ।

एक विषय पर
इतना लिखने के लिए ...

बधाई।

Anonymous का कहना है कि -

Deepak.....u r really great.......
Tum jo poem likhte ho wo real life se kafi related rehta hai....rather than philosophy....
specially last stanza ******
बूढी नानी सूत कातती है
चाँद पर ,
कपड़े बुन ले तो ले आऊँगी-
कहकर तू
साहुकार से उधार लेने गई थी।
माँ ! देख अब
ढेर सारे कपड़े हैं मेरे पास ,
हैं ढेर सारे पैसे भी,
निगोड़े साहुकार का कर्ज चुका दूँगा मैं,
बस तू चाँद से वापस आ जा।

तू मेरे लिए
धब्बॊं वाली नानी को छोड़कर
वापस आएगी ना , माँ ! ********

jo kahani humlog bachpan se chandamama ke bare me sunte aayen hain......use deepak ne itne behtar dhang se likha hai.......itz amazin....
I wish him all luck for the future!!!!!!!

Nimesh का कहना है कि -

i dunno how to express this. i would apologise for i could sound rude at times.

The Moon, as we know it today, for the beauty and the coolness it bestows on us is a symbol of love and affection, is, to some extent said in ur poem.

What i liked:

Chaand jalaa daala....
this one is too good. I dunno, but i enjoy treating moon as a person, someone for whom Gulzar said "...Chori chori khidki se nange paon chand aayega... neem ke ped se..." The last stanza of yours strikes the same chord. Good one! Keep penning more of such matured words.


However, there is one problem with it: ur ideas in this poem could be more systematic. Try to develop a smooth stream in your creations, and they will turn into a delicacy.

Good style which you have developed.Wish u all the best for it.

A Silent Lover का कहना है कि -

एक दिन चाँद को दिल दिया था मैने,
पर मेरी चाँद मुझे ठुकरा के चली गयी।
शायद मेरे में कोई धब्बा दीखा था उसे,
या फीर शायद वो अपने धब्बे छुपाना चाहती थी।

आज जब भी चाँद को देखता हूँ,
मुझे चाँद नेही, उसके धब्बे दीखते हैं।



तन्हा जी, पेहली बार हिन्दी में कुछ लिखने कि दु:साहस की है। कुछ गलती हो गयी हो तो माफ कर देना।

एक नीरब प्रेमी।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

वैसे क्षणिकाओं का कोई लिखित संविधान नहीं है, फ़िर भी मेरा मानना है कि उन्हें थोड़ा छोटा होना चाहिए, जैसे कि आपकी आखिरी क्षणिका या फ़सल पर लिखी हुई आपकी सभी क्षणिकाएँ।

यह पंक्तियाँ व्यंग्य करती हैं-

जब से शहर चकाचौंध हुआ है-
चाँद आराम से सोता है,
अपने बदन के मैले-कुचैले धब्बों को
हर रात
फूटपाथ पर फेंक देता है।
खबर मिली है कि
कल रात गाड़ी के नीचे आकर
कुछ अनचाहे धब्बे चल बसे।
अच्छा हीं हुआ
आखिरकार
बोझ थे वो-
दिन में चाँद पर , रात में धरती पर।

डॉ .अनुराग का कहना है कि -

बहुत अच्छी कविताए है. मई कवितायो की टेक्निकॅलिटी मे नही जौँगा. पर सचमुच मन मोह लाया.

श्रवण सिंह का कहना है कि -

कविताओं(जोशीले लोग इसे क्षणिकाओं पढ़ें)के इस गुच्छे मे भावों और बिम्बों के पुष्प तो अपनी पूरी शोभा के साथ सज रहे हैं, पर काव्यात्मक शास्त्रीयता की कसौटी पर रचना अपनी पूर्णता एवं समुचित ढाँचे के लिये कराहती दिख रही है। अगर कोई किसी खास विषय को भिन्न-भिन्न रूप मे दर्शाने की कोशिश करता है, तो एक जिम्मेदारी और साथ मे जुड़ जाती है कि उन सारे रूपों से वो एक जीवंत शरीर(एक सार्थक व वस्तुनिष्ठ बिम्ब) का निर्माण करना करे; तभी रचना सशरीर,सशक्त एवं पूर्ण मालूम पड़ेगी।
चाँद और उसके धब्बों को लेकर जितने भी बिम्ब रचनाकार ने लिये, इस सप्तक मे अलग -अलग सातों अपनी अपनी जगह सराहनीय हैं । रचना की उत्कृष्टता और बढ़ जाती, अगर वे किसी निश्चित व्यवस्था के साथ और किसी विशेष प्रयोजन के निमित्त पेश किये गये होते।
मुझे सातो फूल पसंद आए..... कोफ्त सिर्फ इतनी सी हुई कि माला न बना पाया।
सस्नेह,
श्रवण

श्रद्धा जैन का कहना है कि -

ek bhaut hi ghare bhaav liye hue premika se chand ki tulna aur uske baad uske har baat main se baat ko kahna

bhaut bhaut khoob har sabad aur kuch bhaut achhe ban padhe hai inhe padh kar ek naya kavi ko jana hai maine jo sabse alag hai sabse behatar

javacoder का कहना है कि -

badhai ho vd bhai, ek aur utkrishta prastuti, bas ye kahna chahunga ki alag alag para, aapas mein mil ke end mein koi msg dete pratit nahi hote, baaki aapko inki samjh mujhse acchi hai. ek bar phir se badhai :)

BiDvI का कहना है कि -

वाह तन्हा जी
हर बार आप कुछ नया लेकर आते हैं |

इस बार क्या ख़ूब छन्द लिखी है ....
एकदम अलग अलग भावों से युक्त ...

रचना में एक कमी है कि हर छन्द अलग अलग संदेश दे रहा है
और यहीं इस कि सबसे ब्डी ख़ासियत भी है


चाँद की उपमा से पूरे संसार भर की बातें उजागर हो गयी |

पहल छन्द में आत्म ग्लानि ,
दूसरी में हास्य
.....
अंतिम मे विडंबना

सारे भाव आ गये हैं |


इतनी अलंकारिक भाषा इतने उदार शब्दों से बड़ी मधुर लगी है |

आपको साधुवाद एवं बधाई|

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