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तुम जो काट चुके हो वो सर तो मिलें


तुम्हारी यादों से बने वो घर तो मिलें
मैं इन्हें तोड़ दूँ पर पत्थर तो मिलें

आए रावण तेरी लंका नहीं तो नहीं सही
कम से कम भेजे हुए बंदर तो मिलें

मैं इन लोगों को अब कैसे पहचानूंगा
तुम जो काट चुके हो वो सर तो मिलें

माना के ये तुझे रोक नहीं पाए
टूटे हुए ही सही वो लंगर तो मिलें

कश्तियों से भी सच उगलवा लेंगे
रेत में धँसे वो समंदर तो मिलें

--पराग अग्रवाल

मैं परिंदे की आखिरी परवाज़ देख रहा हूँ


सितमगर की जुल्फों के अंदाज़ देख रहा हूँ
मैं जानां की तासीर-ए-आवाज़ देख रहा हूँ

ऐ निगाहों तुम होश-ओ-हवास में रहना
मैं परिंदे की आखिरी परवाज़ देख रहा हूँ

आगाज़ हुआ हैं जबसे तामीर-ए-आशियाने का
तब से इन हवाओं को नाराज़ देख रहा हूँ

क्या देख रहे हो समंदर में गौर से
मैं इसका मुसलसल रियाज़ देख रहा हूँ

जिसके हाथो में कभी त्रिशूल हुआ करता था
मैं आज उसके हाथों में साज़ देख रहा हूँ

शब्दार्थः तासीर-ए-आवाज़- आवाज़ का असर, परवाज़- उड़ान, तामीर-ए-आशियाने- भवन-निर्माण, मुसलसल- शृंखलित, सतत, लगातार

--यूनिकवि पराग अग्रवाल

तू आसमान हो जा और मैं ज़मीन हो जाऊँ


अब्बू चाहते हैं कि मैं संगीन हो जाऊँ
मासूमियत छोड़कर मैं ज़हीन हो जाऊँ
तू अब्र बनकर बरसना चाहता है तो ठीक है
तू आसमान हो जा और मैं ज़मीन हो जाऊँ
इस क़दर तो मैं डरता नहीं हूँ उस शक़्स से
के वो घूमे बेखौफ़ और मैं परदानशीन हो जाऊँ
कल रात ने अपनी ख्वाइश चाँद को बताई
अब तू काला हो जा और मैं रंगीन हो जाऊँ
बताओ ना "पराग" क्या ऐसा नहीं हो सकता
की मैं चाँद से ज़्यादा हसीन हो जाऊँ ??

--पराग अग्रवाल

जितने खाली प्याले थे सब के सब जाम हो गए


तमाम दरिया-ओ-समंदर गुलाम हो गए
उसके शहर में अब ये किस्से तो आम हो गए

मैकदों की तकदीर मोहताज है उसके लम्स की
जितने खाली प्याले थे सब के सब जाम हो गए

जो शहंशाह तख्त-ओ-ताज के वाली थे कभी
अब वही लोग मेरे शहर में बेनाम हो गए

जो रास्ते कभी मेरी पहचान हुआ करते थे
अब तो वो भी गुज़र-गाह-ऐ-आम हो गए

उसने तलवार उठा ली थी क़त्ल-ए-आम के लिए
घबराहट में ही अपने टुकड़े तमाम हो गए

--पराग अग्रवाल