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बसंत आया, पिया न आए, पता नहीं क्यों जिया जलाये


भोजपुरी साहित्य में पिछले एक दशक से जो सितारा चमह रहा है, उसका नाम है मनोज भावुक। मनोज ने भोजपुरी साहित्य के प्रचार-प्रासर का काम भारत के साथ-साथ यू॰के॰, अफ्रीका आदि के भी देशों में किया है। गीतकार / पटकथा लेखक / संपादक / फिल्म समीक्षक / एंकर / कुशल मंच संचालक / रंगकर्मी / अभिनेता / भोजपुरी रिसर्चर इत्यादि के पर्याय भावुक हिन्दी में भी अपनी कलम चलाते हैं। चर्चित भोजपुरी गायक भरत शर्मा 'व्यास' ने इनकी चुनिंदा ग़ज़लों को अपनी आवाज़ भी दी है। इन दिनों 'हमार टीवी' में प्रोग्राम प्रोड्यूसर है। ऋतुराज वसंत की दस्तक को कवितारूप देकर हिन्द-युग्म को लिख भेजे हैं। यह रचना कविता से लुप्त होती जा रही मिठास को पुर्नजीवित करने का एक प्रयास भी कही जा सकती है।

बसंत आया, पिया न आए, पता नहीं क्यों जिया जलाये
पलाश-सा तन दहक उठा है, कौन विरह की आग बुझाये

हवा बसंती, फ़िज़ा की मस्ती, लहर की कश्ती, बेहोश बस्ती
सभी की लोभी नज़र है मुझपे, सखी रे अब तो ख़ुदा बचाए

पराग महके, पलाश दहके, कोयलिया कुहुके, चुनरिया लहके
पिया अनाड़ी, पिया बेदर्दी, जिया की बतिया समझ न पाए

नज़र मिले तो पता लगाऊं की तेरे मन का मिजाज़ क्या है
मगर कभी तू इधर तो आए नज़र से मेरे नज़र मिलाये

अभी भी लम्बी उदास रातें, कुतर-कुतर की जिया को काटे
असल में 'भावुक' खुशी तभी है जो ज़िंदगी में बसंत आए

ओह! ऋतुराज न करना संशय.....


ओह! ऋतुराज न करना संशय आना ही है।
तुमको दूषित प्रकृति पर जय पाना ही है।

धरा प्रदूषण का हालाहल पी कर मौन।
जीवन को संरक्षण तब देगा कौन?

ग्रीष्‍म, शरद, बरखा ने अपना कहर जो ढाया।
देख रहे अब शीत, शिशिर का रूप पराया।

तुम भी कहीं न सोच बैठे हो साथ न दोगे।
तब कैसे तुम वसुन्‍धरा का मान करोगे ?

जगत् जननी के पतझड़ आंचल को लहराओ।
वसन्‍तदूत भेजा है हमने फौरन आओ।

दो हमको संदेश पुन: जीवन का भाई।
भेजो पवन सुमन सौरभ की जीवनदायी।

हम संघर्ष करेंगे हर पल ध्‍यान रखेंगे।
उपवन, कानन, प्रकृति, धरा की शान रखेंगे।

स्‍वच्‍छ धरा निर्मल जल सुरभित पवन बहेगी।
वसुधा वासंती आंचल को पहन खिलेगी।

--गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल'

एम. एफ. हुसैन की पेंटिग्स पर झूमते लोग


आज बसंत पंचमी है। मेरा वास्तविक जन्म दिन । परिचय में जो मैने लिखा- वह मेरे स्व० पिताजी का स्कूल में दाखिला के समय लिखाई गई तिथि है। इस अवसर पर अपनी एक कविता जो मैंने वर्ष १९९९ में लिखी थी, आप सबकी नज़र कर रहा हूँ।

सरस्वती पूजा

सरस्वती की प्रतिमा
भांग या शराब के नशे में चूर
थिरकते कदम
उल्लू बनकर उछलते-कूदते
कमसिन लड़के-लड़कियाँ
लाउड-स्पीकर पर तेज फिल्मी धुन
'ऐ क्या बोलती तू' .... या 'छम्मा-छम्मा'

जबरदस्ती उगाहे चन्दे की कमाई
और खर्च के हिसाब का झगड़ा
सांस्कृतिक कार्यक्रम के प्रोत्साहन पर
मोहल्ले के दादा का आशीष वचन
अपने ही घर के बच्चों की पंडाल में जाने की ज़िद
मेरी सलाह को दकियानूसी बताकर हंसना

दुःख और क्षोभ से बंद आंखों ने देखा
पंडाल की दीवारों पर हर जगह
एम. एफ. हुसैन की नृत्य करती सरस्वती
और उस पर झूमते लोग

पहचाना
ये वही लोग थे
जो जला रहे थे
एक दिन
एम. एफ. हुसैन की पेंटिग्स ।

----देवेन्द्र पाण्डेय

बसंत आमंत्रण


कर्ण कुण्डल घूंघर बाल
कपोल ताम मदमद चाल
मन बसंत तन ज्वाला
नैत्र क्षैत्र डोरे लाल ।

पनघट पथ ठाडे पिया
अरण्य नाद धडके जिया
तन तृण तरंगित हुआ
करतल मुख ओढ लिया ।

आनन सुर्ख मन हरा
उर में आनंद भरा
पलकों के पग कांपे
घूंघट पट रजत झरा ।

चितवन ने चोरी करी
चक्षु ने चुगली करी
पग अंगुठा मोड लिया
अधरों पर उंगली धरी ।

कंत कांता चिबुक छुई
पूछी जो बात नई
जिव्हा तो मूक भई
देह न्यौता बोल गई ।