ओह! ऋतुराज न करना संशय आना ही है।
तुमको दूषित प्रकृति पर जय पाना ही है।
धरा प्रदूषण का हालाहल पी कर मौन।
जीवन को संरक्षण तब देगा कौन?
ग्रीष्म, शरद, बरखा ने अपना कहर जो ढाया।
देख रहे अब शीत, शिशिर का रूप पराया।
तुम भी कहीं न सोच बैठे हो साथ न दोगे।
तब कैसे तुम वसुन्धरा का मान करोगे ?
जगत् जननी के पतझड़ आंचल को लहराओ।
वसन्तदूत भेजा है हमने फौरन आओ।
दो हमको संदेश पुन: जीवन का भाई।
भेजो पवन सुमन सौरभ की जीवनदायी।
हम संघर्ष करेंगे हर पल ध्यान रखेंगे।
उपवन, कानन, प्रकृति, धरा की शान रखेंगे।
स्वच्छ धरा निर्मल जल सुरभित पवन बहेगी।
वसुधा वासंती आंचल को पहन खिलेगी।
--गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल'
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुन्दर लिखा है।
bahut achha likhaa hai apne
aakul ji.
badhaai ho aapko..............
सुंदर...
अच्छा लिखा है
ये बहुत पसंद आया
स्वच्छ धरा निर्मल जल सुरभित पवन बहेगी।
वसुधा वासंती आंचल को पहन खिलेगी
rachana
प्रिय आकुल जी
वसंत पर अब तक पढ़ी़हुई रचनाओं में आपकी हस्तगत रचना उन सभी से कथ्य अपूर्व होते हुए शिल्प का भी इस तरह का अमूमन उदाहरण नहीं मिलता. ऋतुराज को आने का आग्रह एक दम नई बात है, जो रचना को प्रेरक उंचाइयां प्रदान करता है. बधाई.
रघुनाथ मिश्र
बहुत सुन्दर लिखा है।
तुम भी कहीं न सोच बैठे हो साथ न दोगे।
तब कैसे तुम वसुन्धरा का मान करोगे ?
जगत् जननी के पतझड़ आंचल को लहराओ।
वसन्तदूत भेजा है हमने फौरन आओ।
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