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आशुतोष माधव की कविता मे प्रलय की पगध्वनि


पिछले कुछ दशकों मे हिंदी-कविता मे कथ्य पर ज्यादा जोर देने के साथ शैली स्तर पर जहाँ विविध प्रयोग हुए हैं, वहीं वर्तमान हिंदी-कविता पर अपनी गेयता की परंपरा से दूर हो जाने के आरोप भी लगते रहे हैं।एक साथ अलग-अलग विचारधाराएँ सामने आती रहीं। जहाँ कुछ पक्ष रस-लय-छंद-गेयता को कविता की बुनियादी शर्तों मे मानते रहे हैं, वहीं कुछ अन्य पक्षों मे छंद आदि को ले कर नकार की भावना रही, तो कई लोग बदलते समय की चुनौतियों की अभिव्यक्ति के लिये काव्य के पारंपरिक रूप को उतना अनुकूल नही मानते हैं। मगर अपने मिथकों को स्वतः ध्वस्त करते रहना साहित्य की एक शाश्वत विशेषता रही है। हर समय मे ऐसे कवि रहे हैं जिन्होने कविता की एकरूपता को तोड़ते हुए उसके किसी तयशुदा प्रारूप मे बँधने की आशंका को गलत साबित किया है। छांदस कविता पिछली सदी के पूर्वार्ध की हिंदी-कविता का मुख्य अंग रही है। उसी शैली मे आज यहाँ प्रस्तुत है आशुतोष माधव की कविता, जो प्रतियोगिता मे चतुर्थ स्थान पर रही है और पुनः यह सिद्ध करती है कि पारंपरिक छंद शैली मे भी वर्तमान समय की विडम्बनाओं को पूरी सहजता और निर्ममता के साथ व्यक्त किया जा सकता है। आशुतोष माधव बनारस हिंदू विश्वविद्यालय मे शोधरत हैं तथा लेखन मे भी निरंतर सक्रिय हैं। इनकी एक कविता फ़रवरी माह मे तीसरे स्थान पर रही थी व खासी पसंद की गयी थी। यहाँ प्रस्तुत कविता कुछ समय पहले चर्चित हुए महामशीन द्वारा बिग-बैंग-थ्योरी संबंधी प्रयोग जैसे सामयिक विषय को आधार बनाती है और तथाकथित प्रलय संबंधी मीडिया-जनित अफ़वाह के बहाने वर्तमान टी आर पी तंत्र, मीडिया की विषयांधता और हमारे अंधविश्वासों को भी अपने निशाने पर लेती है। यहाँ दृष्टव्य है कि दोहा व रोला छंदो का प्रयोग यहाँ पर कविता के कथ्य की व्यंग्यात्मकता की धार को और पैनापन दे्ता है, और कतिपय मात्रागत कमियों के बावजूद  कविता अपने समय की आवाज बन कर उभरती है।

पुरस्कृत कविता: प्रलय की पगध्वनि

(1)
टी.आर.पी. के मनचले हो गए मालामाल,
विश्वग्राम की देह पर खूब सजी चौपाल.
खूब सजी चौपाल सीन थे कितने धांसू,
सारे माल डकार घड़ियाल बहावें आंसू!


(2)
घुनों की उबली लाश संग थाली रखी सजाय,
बिग-बैंग के ढोल पर छम-छम नाची गाय.
छम-छम नाची गाय रोज का है ये किस्सा,
बाघ चरावे गाय, सिंहनी करती गुस्सा!


(3)
नंदी, बाल-गणेशा ने डकरा सारा दूध,
मरियम नैन अँसुवन भरे नहीं थमी यह भूख.
नहीं थमी यह भूख गज़ब है गोरखधंधा,
हुई कहाँ से चूक बना बछडा भी अंधा!


(4)
सूचना की शव-साधना बनते साधक सिद्ध,
शिखंडी की जांघ पर भकुवाये से गिद्ध.
भकुवाये से गिद्ध, पॉल बाबा का तुक्का,
दोपाये ऊदबिलाव देखकर हक्का-बक्का!

(बछडा=ताजी पीढी;
गाय=निरीह जनता,जिसके पास जनमाध्यमों का कोई विकल्प नहीं है.)
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पुरस्कार:  विचार और संस्कृति की चर्चित पत्रिका समयांतर की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।

स्नोवा आई लव यू का विरहगीत गाने वालो, जवाब दो


परिचय और चित्र के अभाव में हम फरवरी माह की यूनिकवि प्रतियोगिता की तीसरी कविता प्रकाशित नहीं कर सके थे। इस कविता के रचयिता आशुतोष कुमार आशुतोष माधव के नाम से कविताएँ लिखते हैं। 1 अप्रैल 1983 को वाराणसी में जन्मे आशुतोष वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय से 'आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के प्रदेय का अनुशीलन' विषय पर पीएचडी कर रहे हैं। कवि की छोटी कक्षाओं से ही हिन्दी में विशेष रुचि रही। कवि ने 2006 में स्नाकोत्तर में सर्वोच्च अंक (83॰1 प्रतिशत) लाकर बीएचयू से स्वर्ण-पदक प्राप्त किया। अखिल भारतीय नवोदित साहित्यकार परिषद् की पत्रिका- ‘हिन्दी नवसृजन’ का सम्पादन एवं प्रकाशन के अतिरिक्त आशुतोष बहुत से शोधकार्यों और लेखन में सक्रिय हैं।

पुरस्कृत कविताः अथातो स्नोवा

बलवान समय
आज उस समाज को जी रहा है
जहाँ,
जीवन की सम्भावनाएँ/स्पृहाएँ
नाश्ते की तश्तरी में उतर रही हैं
सजाती हैं खाने के थाल,
जहाँ,
मोतियाबिन्द के मरीज- एक आत्मीय बुजुर्ग को
जन्मदिन पर
छोटे फाण्ट की किताबें
गिफ़्ट करने का रिवाज है.
जहाँ,
भाषा, विवेक, करुणा वगैरह
कला की कापी में इस्तेमाल किए जा सकने वाली
कोई चीज हैं और
बीएसपी*, अभी भी बुनियादी मुद्दा है.
जहाँ,
अध्यापक, प्रश्नाकुलता की पौध को
रौंदने वाला उद्भ्रांत जीव है और पाठशालाएँ दुःस्वप्न
(हाँ मिड-डे-मील की बात दीगर है).
जहाँ,
प्रोफेसर को लिखते-पढ़ते देख
होती है ठीक वैसी ही हैरानी जैसे
मीडियाकर के लिए एक घटनाविहीन दिन, जैसे
एक पोस्टकार्ड का मिलना.
जहाँ,
बूढ़े स्त्रीचिन्तक-इंटलेक्चुअल्स के गटर से निकली
नारीवादी बहसों का महाविस्तार
पहुँचता है-माला डी या फिर आई-पिल तक.
और जहाँ,
आदमी को सूँघकर
तौली जाती है उसकी सृजनधर्मिता
चमड़ी का गोरा होना रखता है मायने
बनता है छप सकने की वजह.
ऐसे जन्तु-जगत में
स्नोवा बार्नो की पर्देदारी;
अस्ति-नास्ति, उसका आदि-मध्य-अवसान!
जैसे हो इस सरल व्याकरण का कोई असहज अपवाद!!
आखिर क्यों मचती है इतनी
ऊभ-चूभ
आसन्नप्रसवा के अन्तर्मन की सी.
चिन्ता मत करो आस्तिको!
मुझे पता है कि
बलवान समय दर्ज कर लेता है
ऐसी हलचलें भी
चुपचाप.
लेकिन,
स्नोवा आई लव यू का विरहगीत गाने वालो
जवाब दो
कि तुम पर मोनालिसा हँस क्यों रही है
लगातार.
(* बिजली, सड़क, पानी)


पुरस्कार- विचार और संस्कृति की मासिक पत्रिका 'समयांतर' की ओर से पुस्तक/पुस्तकें।