26 अप्रैल 2011 से हमने समकालीन युवा कवियों को आपके समक्ष प्रस्तुत करने का एक नया स्तम्भ 'काव्यसदी' आरम्भ किया है, जो युवा कवि भरत प्रसाद के संपादन और निर्देशन में आगे बढ़ेगा। पिछली बार आपने युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की तीन कविताएँ पढ़ी, आज हम उनकी दो कविताएँ लेकर उपस्थित हैं। संतोष डिटेलिंग के कवि हैं, लेकिन जब आप उनकी कविताओं को पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि ये सारे विवरण ज़रूरी थे। इससे इनकी कविता अपने तमाम तर्कों के साथ पाठक तक पहुँचती है।
माँ का घर
मैं नहीं जानता अपनी माँ की माँ का नाम
बहुत दिनों बाद जान पाया मैं यह राज
कि जिस घर में हम रहते हैं
वह दरअसल ससुराल है माँ की
जिसे अब वह अपना घर मानती है
फिर माँ का अपना घर कहाँ है
खोजबीन करने पर यह पता चला
कि मामा के जिस घर में
गर्मियों की छुटि्टयों में
करते रहते थे हम धमाचौकड़ी
वही माँ का घर हुआ करता था कभी
जहाँ और लड़कियों की तरह ही वह भी
अपने बचपन में सहज ही खेलती थी कितकित
और गिटि्टयों का खेल
जिस घर में रहते हुए ही
अक्षरों और शब्दों से परिचित हुई थी वह पहले-पहल
वही घर अब उसकी नैहर में
तब्दील हो चुका है अब
अपना जवाब खोजता हुआ मेरा सवाल
उसी मुकाम पर खड़ा था
जहाँ वह पहले था
माँ का घर एक पहेली था मेरे लिए अब भी
जब यह बताया गया कि
हमारा घर और हमारे मामा का घर
दोनो ही माँ का घर है
जबकि हमारा घर माँ की ससुराल
और मामा का घर माँ का नैहर हुआ करता था
हमारे दादा ने रटा रखा था हमें
पाँच सात पीढी तक के
उन पिता के पिताओं के नाम
जिनकी अब न तो कोई सूरत गढ़ पाता हूँ
न ही उनकी छोड़ी गयी किसी विरासत पर
किसी अहमक की तरह गर्व ही कर पाता हूँ
लेकिन किसी ने भी क्यों नहीं समझी यह जरूरत
कि कुछ इस तरह के ब्यौरे भी कहीं पर हों
जिनमें दर्ज किये जाय अब तक गायब रह गये
माताओं और माताओं के माताओं के नाम
हमने खंगाला जब कुछ अभिलेखों को
इस सिलसिले में
तो वे भी दकियानूसी नजर आये
हमारे खेतों की खसरा खतौनी
हमारे बाग बगीचे
हमारे घर दुआर
यहाँ तक कि हमारे राशन कार्डों तक पर
हर जगह दर्ज मिला
पिता और उनके पिता और उनके पिता के नाम
गया बनारस इलाहाबाद के पण्डों की पुरानी पोथियाँ भी
असहाय दिखायी पड़ी
इस मसले पर
माँ और उनकी माँ और उनकी माताओं के नाम पर
हर जगह दिखायी पड़ी
एक अजीब तरह की चुप्पी
घूंघट में लगातार अपना चेहरा छुपाये हुए
तमाम संसदों के रिकार्ड पलटने पर उजागर हुआ यह सच
कि माँ के घर के मुददे पर
बहस नहीं हुई कभी कोई संसद में
दिलचस्प बात यह कि
बेमतलब की बातों पर अक्सर हंगामा मचाने वाले सांसदों ने
एक भी दिन संसद में चूं तक नहीं की
इस अहम बात को ले कर
और बुद्विजीवी समझे जाने वाले सांसद
पता नहीं किस भय से चुप्पी साध गये
इस मुद्दे पर
और अपने आज में खोजना शुरू किया जब हमने माँ को
तब भी तकरीबन पहले जैसी दिक्कतें ही पेश आयीं
घर की मिल्कियत का कागज पिता के नाम
बैंकों के पासबुक हमारे या हमारे भाइयों या पिता के नाम
घर के बाहर टंगे हुए नामपट्ट पर भी अंकित दिखे
हम या हमारे पिता ही
हर जगह साधिकार खड़े दिखे
कहीं पर हम
या फिर कहीं पर हमारे भाई
या फिर कहीं पर हमारे पिता ही
जब हमने अपनी तालीमी सनदों पर गौर किया
जब हमने गौर किया अपने पते पर आने वाली चिटि्ठयों
तमाम तरह के निमन्त्रण पत्रों
जैसी हर जगहों पर खड़े दिखायी पड़े
हम या हमारे पिता ही
अब भले ही यह जान कर आपको अटपटा लगे
लेकिन सोलहो आने सही है यह बात कि
मेरे गाँव में नहीं जानता कोई भी मेरी माँ को
पड़ोसी भी नहीं पहचान सकता माँ को
मेरे करीबी दोस्तों तक को नहीं पता
मेरी माँ का नाम
अचरज की बात यह कि
इतना सब तलाश करते हुए भी
जाने अंजाने हम भी बढे जा रहे थे
लगातार उन्हीं राहों पर
जिन्हें बड़ी मेहनत मशक्कत से संवारा था
हमारे पिता
हमारे पिता के पिता
हमारे पिता के पिता के पिताओं ने
एक लम्बे अरसे से
खुद जब मेरी शादी हुई
मेरी पत्नी का उपनाम न जाने कब
और न जाने किस तरह बदल गया मेरे उपनाम में
भनक तक नहीं लग पायी इसकी हमें
और कुछ समय बाद मैं भी
बुलाने लगा पत्नी को
अपने बच्चे की माँ के नाम से
जैसा कि सुनता आया था मैं पिता को
बाद में मेरे बच्चों के नाम में भी धीरे से जुड़ गया
मेरा ही उपनाम
अब कविता की ही कारीगरी देखिए
जो माँ के घर जैसे मुद्दे को
कितनी सफाई से टाल देना चाहती है
कभी पहचान के नाम पर
कभी शादी ब्याह के नाम पर
तो कभी विरासत के नाम पर
न जाने कहाँ सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ बदल जाती है
कभी नदी की धारा में
कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिश की बूँदों मे
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश करती हुई अपने पौधों की
फिर बन जाती है वह मिट्टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलियाँ करते
दिख जाते हैं पौधे
पौधों में खोजो
तो दिख जाती है पत्तियों में
डालियों में फूलों में फलों में
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में
धान रोपती बनिहारिने गा रहीं हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी धूल मिट्टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्थापित उपस्थिति से
किसी भी घर को महिलाएँ
खुद को मिटा कर
और जहाँ तक माँ के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हूँ
अब भी अपना यह सवाल
कोई कुछ बताता नहीं
सारी दिशाएँ चुप हैं
पता नहीं किस सोच में
जब यही सवाल पूछा हमने एक बार माँ से
तो बिना किसी लागलपेट के बताया उसने कि
जहाँ पर भी रहती है वह
वही बस जाता है उसका घर
वहीं बन जाती है उसकी दुनिया
यहाँ भी किसी उधेड़बुन में लगी हुई माँ नहीं
बस हमें वह घोसला दिख रहा था
जिसकी बनावट पर मुग्ध हो रहे थे हम सभी।
राग नींद
देखा मैंने
जब भी देखा
अपने इस शहर को
दौड़ते-भागते-जागते देखा
दिन-रात चलती मशीनें-खटर-पटर
दिन-रात खटते मजदूर-थके-मांदे
दिन-रात की शोर से बहरी हो गयी सड़क
दिन-रात चारो तरफ बस
भागमभाग-दौड़धूप
कहीं पर नींद का नामो-निशान नहीं
कहीं पर नींद की परछाई नहीं
कहीं पर लोरी गाती कोई माँ नहीं
कहीं पर कोई सपना नहीं
उफ् कितना भयावह है यह सब कुछ
हैलोजन-नियॉन लैम्पों की रंगी हुई रोशनी में
गुम होती लोगों की रातें हैं यहाँ
गुम होती रातों में खोती हुई नींद है यहाँ
गुम होती नींद में खोते हुए सपने हैं यहाँ
और यह आकाश-तारों की लड़ियों से सजा हुआ
दुग्ध-धवल आकाशगंगा में तना हुआ
खोता जा रहा है समूचा
मानवी चकाचौंध के बाहुपाश में
नींद की वजह से कभी कुम्भकर्ण की उपाधि से नवाजा गया मैं
अब खुद को पाता हूँ जागता आकर्ण
जब कभी पलक झपकती है
गाने लगता है मोबाइल- ‘राग कर्कश' में,
जब कभी अलसाती हैं हमारी आखों
घर सन्नद्ध हो जाता है टी.वी. चैनल पर आने वाले
अपने प्रिय धारावाहिक को देखने के लिए
जब कभी आखों में झलकती है नींद की लालिमा
होने लगता है बेमतलब का हंगामा मेरे घर के सामने
और एक बार उचटी हुई नींद की लड़ी जोड़ने की
कोशिश में जब भी जुटता हूँ
रात बेतरह थक चुकी होती है
कि इसी समय
चौकाने वाली खबरों के साथ आ धमकता है अखबार
मित्रों-परिचितों-अपरिचितों की कॉलबेल बजने लगती है
सूरज आ जाता है अपने सात घोड़ों वाले रथ के साथ
बड़ी तेजी से-ठीक अपने समय पर
और मैं चल पड़ता हूँ
अपने काम पर-दौड़ते-भागते
अपने जगने के समय में कोई कटौती नहीं कर पाता
कविताई करने में भी नहीं करता समझौता
बाजार का अपना हिस्सा है हमारे जागृति-समय में
घर-बार, दोस्तों-मित्रों का अलग दावा है हमारे समय में
रोजी-रोजगार का कारोबारी समय तो तय ही है
कोई भी कटौती जब करनी होती है
कर लेता हूँ अपनी नींद वाले समय से
और अब हालत यह है कि
सब कुछ होते हुए मेरे पास नहीं है मुट्ठी भर नींद
वह लम्हा नहीं मिल पाता
जब ले सकूं सुकून भरी नींद
अपने सितार पर मैं 'राग नींद' बजाना चाहता हूँ।
लेकिन अजीब तरीके से बजने लगता है कभी- 'राग जागृति'
तो कभी बजने लगता है - 'राग भागमभाग'
तो कभी बजने लगता है - 'राग चिन्ता'
और इस तरह के कई और राग
जिनके नाम तक नहीं सुने संगीत के मशहूर उस्तादों ने भी
किस्सागो बताते हैं
'राग नींद' बजाने वाले बचे हैं कुछ लोग
अपनी फाकामस्ती के बावजूद
वे सड़क किनारे धूल वाले बिस्तर पर
आसन साध कर जुट जाते हैं रियाज में
गाने लगते हैं 'राग खर्राटा'
इस 'राग नींद' को साध लेते हैं रिक्शावाले सहज ही
अपने रिक्शे पर पड़े-पड़े-मुड़ी-गोड़ समेटे
या फिर उन मजूरों के आखों बजता दिख जायेगा 'राग नींद'
जो पसीने के अपने कवच-कुण्डल के साथ
दिख जाते हैं मेहनत के रंगमंच पर
'राग नींद' बजाते हुए पहुँच जाते हैं वे मजूर
'नींद-उत्सव' के राग में
सुधी स्रोता भी भांप नहीं पाते
सड़कों के डिवाइडरों, रेलवे प्लेटफार्मों
चौराहे के पार्कों और चबूतरों तक को
बदल डालते हैं वे मंच में
तेज रफ्तार वाहनों की कानफोड़ू आवाजें
महफिलों में छोड़े जाने वाले पटाखे
मौसम की उमस
या आस-पास भिनभिनाते-काटते माखी-मच्छर
नहीं तोड़ पाते उनका ध्यान
'नींद-उत्सव' को खास रंग देने में
जुटे हैं वे तल्लीनता से
वातानुकूलित कमरों
गद्देदार बिस्तरों
सुमधुर संगीत और
तरह-तरह की सुख-सुविधाओं के बीच भी
उचट जाती है नींद
बारम्बार
मैं नींद को धमकाता हूँ
नींद को खरीदना चाहता हूँ बाजार से
किसी भी कीमत वाले रिचार्ज कूपन का भुगतान कर
पाना चाहता हूँ 'स्लीपिंग वैल्यू'
हो सके तो किसी से उधार ही लेना चाहता हूँ नींद
लेकिन किसी भी जुगत से
नहीं मिल पा रही नींद
नींद की कई तरह की गोलियों
नींद के आजमाए हुए जोग
नींद के सिद्ध तन्त्र-मन्त्र
नींद की तमाम कसरतों-कवायदों के बावजूद
कहीं भी पता नहीं नींद का
नींद की अहेर में जुटा हुआ मैं
बार-बार क्यों रह जा रहा असफल
नहीं लांघ पा रहा नींद की देहरी
बचपन के गाँव में एक हकीमजी बताया करते थे
और आज का हमारा चिकित्साशास्त्र भी तसदीक करता है इस बात की
अच्छी सेहत के लिए जरूरी होती है पुरकश नींद
सफल होने के लिए जरूरी होते हैं सपने
लेकिन अब तो यहाँ न नींद है, न ही सपने
हमारे शहर को लग गयी है किसी की नजर
कोई वैद्य-हकीम आकर बचा ले हमारे शहर को
किसी भी कीमत के एवज में
नींद से आदमी के पुरातन रिश्ते में
किस वजह से पड़ती जा रही है दरार
आदमी-आदमी के बीच
अब क्यों नहीं रहा वह ऐतबार
जब कोई सफर करते हम
बगलगीर से बेतक्कलुफी से बता कर
आराम से सो जाते थे
'भाइर्स्साब ........ इलाहाबाद जंक्शन आने पर
जरा जगा दीजिएगा हमको'
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
प्रिय संतोष भाई
मेरा यह मानना था कि माँ के लिए यदि किसी लेखनी ने प्रभाव छोड़ा है तो वो स्वर्गीय ओम व्यास एवं आदरणीय मुनव्वर राणा जी है. मगर आपको भी मैं इसी श्रेणी में रख रहा हूँ. अतिउत्तम कविताओं के लिए बधाई स्वीकार करें.
विवेक "अंजान"
संतोष जी, माँ के घर की तलाश मे, एक बहुत ही अच्छी कविता के लिये बहुत बहुत बधाइयाँ स्वीकार कीजिएगा, यह प्रश्न सालो से मेरे भी बहुत निकट का रहा है शायद सभी के दिल के करीब होता है पर अभिव्यक्ति इतनी अच्छी नही मिल पाती. बधाई तथा धन्यवाद अच्छी कविता के लिए. कुछ एसे ही भावो की एक लघुकथा है मेरी, लिंक दे रही हु देखिएगा
http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/mahanagar_ki_kahaniyan/2007/kalpvriksh.htm
behatareen kavitaa.......
मां पर कई कविताएं पढी हैं पर इस कविता का कोई जबाब नहीं।अच्छी कविता के लिये बहुत बहुत बधाई। भाई साहब इलाहाबाद जंक्शन आने पर
जरा जगा दीजिएगा हमको
क्या कहने संतोष भाई । जरूर जगाउंगा।
बेहतरीन रचनायें।
सुंदर रचनाएँ
aapki kavitaaon se seekhne ko mila aur agli kavitaaon ke liye vichaar bhi.. Badhai Santosh ji.. Bharat ji ka aabhaar utkrisht chayan par..
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