कविता प्रेमियो,
आज से हम कविता का एक नया स्तम्भ शुरू कर रहे हैं, जिसको हमने 'काव्यसदी' का नाम दिया है। इसके अंतर्गत हम ऐसे समकालीन युवा कवियों की चुनिंदा कविताओं को आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे, जो समकालीन हिन्दी कविता की दिशा निर्धारित कर रहे हैं। इस स्तम्भ के लिए कवि और कविता का चुनाव तथा सम्पादन युवा कवि भरत प्रसाद ने अपने जिम्मे लिया है। युवा कवि भरत प्रसाद हिन्दी लिखने-पढ़ने में बेहद सक्रिय हैं, साहित्यिक पत्रिका 'परिकथा' में भी 'ताना-बाना' नाम का स्तम्भ सम्हाले हैं। हिन्द-युग्म जल्द ही भरत प्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व से आपका परिचय करायेगा। लेकिन सबसे पहले बिना किसी अतिरिक्त भूमिका के 'काव्यसदी' के पहले कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी की 3 कविताएँ हम आपके समक्ष रख रहे हैं।
विषम संख्याएँ
संतोष कुमार चतुर्वेदी
जन्म- 2 नवम्बर 1971 को उ0 प्र0 के बलिया जिले के हुसेनाबाद गॉव में एक किसान परिवार में।
पिता- श्री सुरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी
माँ- श्रीमती मालती देवी
प्रारंभिक पढाई गाँव में ही। समस्त उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ‘प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ तथा ‘आधुनिक इतिहास’ में परास्नातक। ‘प्राचीन भारतीय साहित्यिक एवं कलात्मक परम्परा’ में पेड़ पौधे एवं वनस्पतियॉ शीर्षक से डी. फिल.। पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक डिप्लोमा। प्रारंभ में 15 सालों तक ‘कथा’ पत्रिका में सहायक सम्पादक के रूप में कार्य किया। इस समय ‘अनहद’ नामक पत्रिका का संपादन। 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से काव्य संग्रह ‘पहली बार’ का प्रकाशन। अभी हाल ही में लोकभारती प्रकाशन से ‘भारतीय संस्कृति’ नामक पुस्तक का प्रकाशन। देश भर की पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी इलाहाबाद से निरन्तर कविताओं का प्रसारण।
संप्रति- उ.प्र. के चित्रकूट जिले के मउ में एम. पी. पी. जी. कॉलेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष।
सम्पर्क- 3/1 बी, बी. के. बनर्जी मार्ग, नया कटरा, इलाहाबाद, उ0 प्र0 211002
मोबाइल- 09450614857, ई मेल- santoshpoet@gmail.com
जिन्दगी की हरी-भरी जमीन परजन्म- 2 नवम्बर 1971 को उ0 प्र0 के बलिया जिले के हुसेनाबाद गॉव में एक किसान परिवार में।
पिता- श्री सुरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी
माँ- श्रीमती मालती देवी
प्रारंभिक पढाई गाँव में ही। समस्त उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। ‘प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ तथा ‘आधुनिक इतिहास’ में परास्नातक। ‘प्राचीन भारतीय साहित्यिक एवं कलात्मक परम्परा’ में पेड़ पौधे एवं वनस्पतियॉ शीर्षक से डी. फिल.। पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक डिप्लोमा। प्रारंभ में 15 सालों तक ‘कथा’ पत्रिका में सहायक सम्पादक के रूप में कार्य किया। इस समय ‘अनहद’ नामक पत्रिका का संपादन। 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से काव्य संग्रह ‘पहली बार’ का प्रकाशन। अभी हाल ही में लोकभारती प्रकाशन से ‘भारतीय संस्कृति’ नामक पुस्तक का प्रकाशन। देश भर की पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी इलाहाबाद से निरन्तर कविताओं का प्रसारण।
संप्रति- उ.प्र. के चित्रकूट जिले के मउ में एम. पी. पी. जी. कॉलेज में इतिहास के विभागाध्यक्ष।
सम्पर्क- 3/1 बी, बी. के. बनर्जी मार्ग, नया कटरा, इलाहाबाद, उ0 प्र0 211002
मोबाइल- 09450614857, ई मेल- santoshpoet@gmail.com
अपनी संरचना में भारी-भरकम
दिखायी पड़ने वाली सम संख्याएँ
किसी छोटी संख्या से ही
विभाजित हो जाती हैं प्रायः
वे बचा नहीं पातीं
शेष जैसा कुछ भी
विषम चेहरे-मोहरे वाली कुछ संख्याएँ
विभाजित करने की तमाम तरकीबों के बावजूद
बचा लेती हैं हमेशा
कुछ न कुछ शेष
वैसे इस कुछ न कुछ बचा लेने वाली संख्या को
समूल विभाजित करने के लिए
ठीक उसी शक्ल-सूरत
और वजन-वजूद वाली संख्या
ढूँढ़ लाता है कहीं से गणित
परन्तु अपने जैसे लोगों से न उलझ कर
विषम मिजाज वाली संख्याएँ
शब्दों और अंकों के इस संसार में
बचा लेती हैं
शेष की शक्ल में संभावनाएँ
अन्धकार के वर्चस्व से लड़ते-भिड़ते
बचा लेती हैं विषम-संख्याएँ
आँख भर नींद
और सुबह जैसी उम्मीद।
भभकना
समकालीन युवा कवियों में अपनी पुखता पहचान बनाने की ओर अग्रसर संतोष चतुर्वेदी अपनी सुशिक्षित बुद्धि को मथने वाले सूक्ष्म विषयों का चुनाव साहसपूर्वक करते हैं। एक साथ लोकजीवन की दुःख-दर्द भरी हलचलों और जटील अबूझ अर्थ भरे विषयों को साधना किसी युवा कवि के लिए रिस्की प्रयास हैं। मगर संतोष चतुर्वेदी इस रिस्क को अपने अनुकूल और आसान बना लेते हैं। वे कविता में गैप कम छोड़ते है, जो कि पाठक के भीतर अर्थ की अविस्मरणीय अनुगूँज पैदा करने के लिए बेहद जरूरी है। यह गैप साध लेना कविता लिखने की नायाब कलात्मकता का दूसरा नाम है।
-भरत प्रसाद
रोज की तरह ही उस दिन भी-भरत प्रसाद
सधे हाथों ने जलायी थी लालटेन
लेकिन पता नहीं कहाँ
रह गयी थोड़ी सी चूक
कि भभक उठी लालटेन
हो सकता है कि
किरासिन तेल से
लबालब भर गयी हो लालटेन की टंकी
हो सकता है कि
बत्ती जलाने के बाद
शीशा चढ़ाने में थोड़ी देर हो गयी हो
हो सकता है कि
एक अरसे से लापरवाही बरतने के कारण
खजाने में जम गयी हो
ढेर सारी मैल
यह भी संभव है कि
टंगना उठाते समय
हाथों को सूझी हो थोड़ी-सी चुहल
और आपे से बाहर होकर
भभक उठी हो लालटेन
हो सकता है कि
जब सही-सलामत जल गयी हो लालटेन
तो अन्धेरे को रोशनी से सींचने की
हमारी अकुताहट को ही
बरदाश्त न कर पायी हो
नाजुक-सी लालटेन
और घटित हो गया
भभकने का उपक्रम
दरअसल लालटेन का भभकना
जलने और बुझने के बीच की वह प्रक्रिया है
जिसके लिए कुछ भाषाओं ने तो
शब्द तक नहीं गढ़े
फिर भी घटित हो गयी वह प्रक्रिया
जो शब्दों की मोहताज नहीं होती कभी
जो गढ़ लेती है खुद ही अपनी भाषा
जो ईजाद कर लेती है
खुद ही अपनी परिभाषा
यह वह छटपटाहट थी
जो अनुष्ठान की तरह नहीं
बल्कि एक वाकये की तरह घटित हुई
अन्धेरे के खिलाफ बिगुल बजाती हुई
रोशनी को सही रास्ते पर
चलने के लिए सचेत करती हुई
और जब लोगों ने यह मान लिया
कि भभक कर आखिरकार
बुझ ही जायेगी लालटेन
अनुमानों को गलत साबित करती हुई
फैल गयी आग
समूचे लालटेन में
चनक गया शीशा
कई हिस्सों में
वैसे विशेषज्ञ यह उपाय बताते हैं
कि भभकती लालटेन को बुझा देना ही
श्रेयस्कर होता है
और भी तमाम उपाय
किये जाते हैं इस दुनिया में
भभकना रोकने खातिर
लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी
किसी उपेक्षा
या किसी असावधानी से
भभक उठती है लालटेन
अपनी बोली में
अपना रोष दर्ज कराने के लिए।
ओलार
बहुत देर से जुटा है इक्कावान
इक्के पर बैठे अपने सवारियों को व्यवस्थित करने की कोशिश में
चार यात्री भारी-भरकम काया-माया वाले आगे
खुद साईस की तरह विराजमान
अपनी गद्दी पर इक्कावान
कुछ दुबले-पतले और दो-तीन मोटे-ताजे
बीच में अड़स कर बैठे कुछ बच्चे और महिलाएँ
इक्के की छाजन का ढांचा बनाने वाले लोहे के छड़ों
और इक्के का वितान रचने वाले पटरों को
अपनी मजबूत पकड़ में जकड़े हुए सब
लगातार चाबुक बरसा रहा है इक्कावान घोड़े पर
पर घोड़ा है कि अड़ा हुआ अपनी जिद पर
एक भी कदम आगे न बढ़ने की कसम खाये हुए
जबकि नधा है वह गाड़ी में जुतने के लिए ही
कुछ न कुछ जोड़-घटाव करते हुए
जैसे अपने-आप से कहता है इक्कावान
लगता है ओलार हो गयी है गाड़ी
और जब भी ऐसा होता है
इक्का पलटने का खतरा होता है
आगे का कुछ पीछे
और पीछे का कुछ आगे कर रहा है इक्कावान
पर संतुलन ही नहीं बन पा रहा किसी भी तरह इक्के का
कोई सूरत नजर नहीं आ रही एक भी डग
आगे बढ़ पाने की
यह कैसा समय है भाई
कि मोटे और मोटाते-अघाते जा रहे हैं
कमजोर पतराते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
कुछ बैठे हुए हैं पालथी मार कर
और तमाम के कंधे पीरा रहे हैं
कुछ डूबे हैं वैभव-विलास में आकंठ
जबकि तमाम लोगों के सूखते जा रहे हैं कंठ
एक चक्का सूरज की तरह
दूसरा चक्का फिरकी जइसा
ऐसे कैसे गाड़ी चल पायेगी भइया
इसी तरह सब होता रहा अगर
तब तो दुनिया ही ओलार हो जायेगी एक दिन
जिसका मर्म बूझते-समझते हैं
इक्कावान और घोड़े ही।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही खूबसूरत रचनाएँ ,जिंदगी से जुड़ा सत्य या कहूँ तो असली साहित्य यही है जिसमें आम आदमी की बात है ,बधाई |
santosh jee kee rachnayen bahut pasand aayeen...nishchit roop se yah stambh hindyugm ko ek kadam aur aage le jayega...meri dher saari shubhkamnayen....
saadar
behtareen kavitaaye khas taur par lalaten bhabhakane waali.
prabha mujumdar
सर्वप्रथम मैं "काव्यसदी" स्तम्भ के लिए हिंद-युग्म परिवार को बधाई देता हूँ। भाई श्री भरत प्रसाद जी को भी इस सार्थक स्तम्भ का दायित्व संभालने के लिए बधाई। साथ ही मैं "काव्यसदी" के पहले कवि होने का गौरव प्राप्त करने वाले स्नेही श्री संतोष कुमार चतुर्वेदी जी को हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। इनकी सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं।
sundar rachnaein yataarth se jodti hein. badhiyaa
संतोष भाई जब भी कुछ नया लिखते हैं तो संभवतःउनकी कविताओं का पहला श्रोता मैं ही होता हूं। हिन्द युग्म पर उनकी कविताएं पढवाने के हिंद.युग्म परिवार को बधाई देता हूँ। भरत प्रसाद जी एवं साथ ही संतोष कुमार चतुर्वेदी जी को हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। आरसी चौहान; टेहरी गढवाल ।
इन रचनाओं में संतोष जी की एक अलग शैली साफ नजर आती है। विषम संख्याएँ, भभकना और ओलार जैसी चीजें सबके जीवन में आती हैं। मगर इतनी आम चीजों को एक अलग दृष्टि से देखना और आम आदमी से उनको जोड़ देना। यही तो कविता है। आम आदमी आम चीजों से ही जुड़ता है। हाँ, सम संख्याएँ और विषम संख्याएँ दोनों ही अन्य संख्याओं से विभाजित हो सकती हैं। केवल अभाज्य संख्याएँ (prime numbers) ऐसी होती हैं जो सिर्फ स्वयं से और एक से विभाजित होती हैं। विषम संख्या जैसे कि ९ अगर ३ से कटे तो कुछ भी शेष नहीं बचता। मेरे ख्याल से यहाँ विषम की बजाय अभाज्य संख्याएँ होना चाहिए (प्रतीकात्मक अर्थ में भी)। इस स्तंभ को शुरू करने के लिए हिंद युग्म को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ तथा संतोष जी को पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
जिन्दगी से जुड़ी रचनाएँ. उद्वेलित करती हुई अभिव्यक्ति
बहुत ही खूबसूरत रचनाएँ
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
कविताएं जीवंत हैं! संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं अपनी नयी शब्दावली गढ़ रही हैं! उन्हें बधाई, प्रस्तुति के लिए आपका आभार!
धर्मेन्द्र जी,
अभाज्य संख्याओं वाली आपकी बात ठीक है, लेकिन कवि यहाँ कुछ विषय संख्याओं की बात कर रहा है, सभी की नहीं और प्राइम नम्बर विषय संख्या तो हैं ही (2 को छोड़कर)।
लेकिन यहाँ कवि की दृष्टि की तारीफ की जानी चाहिए
संतोष जी के पात्र उनके लोक से आते है...उनके जाने-पहचाने लोक से.......धीरे -धीरे उनसे संवाद शुरू होता है और यह लोक जीवन , हमारा, आपका और सबका जीवन बन जाता है.....एक ऐसा जीवन , जिसे इस अमानवीय व्यवस्था ने नरक सरीखा बना दिया है......संतोष जी हर दूसरी कविता में इससे जूझते मिलते है....कैसे इसे बेहतर बनाया जाए.....ओलार होने पर तो एक इक्का तक नहीं चल पाता , यह दुनिया कैसे चल पाएगी....यह व्यवस्था किसी भी गडित का इजाद कर ले.,कुछ संख्याये तो कटने से रह ही जायेंगी.....आज की फार्मूले बद्ध कविताओ का इससे बढ़िया प्रतिवाद क्या हो सकता है.?....हमारी कविता के सरोकार क्या है?,संतोष जी कभी नहीं भूलते....थके हुए समय में जी रहा, थका हुआ पाठक इन्हें पढने के बाद फुदकना चाहता है....यही हमारे समय की जरुरत भी है और भविष्य के लिए आशा की किरण भी..... .
धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’ और शैलेश भारतवासी दोनों का सही कहना है.
उम्दा रचनाये हैं चतुर्वेदी साहब!!
ओलार के बारे में : उनछुये पहलुओं पर आप तो आग जला गए.
भभकना : कमाल अंदाज है अपना रोष दर्ज कराने का, लालटेन जल और बुझ कर तो नियति निभाती है, चंद क्षण ही सही आपकी नज़र से बच नहीं पाए.
और विषम संख्याएं तो....
शब्द नहीं है हमारे पास क्या कहें...
:)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)