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Thursday, April 28, 2011

गाँधी की नज़र से भी छूट गया गमछा


हमने एक बार अपने पाठकों को उपेन्द्र कुमार की एक कविता 'सत्तू' पढ़वाई थी। उपेन्द्र कुमार अपनी कविताओं में हमेशा ऐसे प्रतीक इस्तेमाल करते हैं जो एक सामान्य रचनाकार के ध्यान से छूट जाते हैं। आज पढ़िए इनकी दूसरी कविता-


गमछा

जी, हाँ
देखता हूँ सपने में भी गमछा
आप उसे उत्तरीय या अंगवस्त्रम्
कुछ भी कह सकते हैं
अपने नगरीय कुलीन-बोध में
गमछे को गमछा कह रहा होता हूँ
मैं जब गमछा कह रहा होता हूँ
तो पूरी
ईमानदारी के साथ
आत्मस्वीकारोक्ति में
संबोधित हूँ उससे
जो ढँकता है पौरुष
उघाड़ता है वीरोचित
अक्खड़पन
छिपा देता है अहंकार
और वह सम्पत्ति
जिसे मैं किसी को नहीं
बताता खुद को भी नहीं
लेकिन उघाड़ देता है वह मेरा
गंवारपन
स्वाभाविकता से
यह मेरा गंवारपन
मेरी अपनी पहचान
मेरा अपनापा
मेरे मेरा होने का एकमात्र साधन
मैं छिपाता हूँ उसे
कुलीन लोगों से
जो झूठ-मूठ हँसते हैं
झूठ-मूठ तरफदारी
झूठ-मूठ तारीफ
झूठ-मूठ साथीपन
बाँटते हुए
काट देते हैं आखिर में
अनुपस्थित होते ही
उनसे बचने के लिए मेरे पास
हथियार हैं अपना गंवारपन छिपाना
मेरा ब्रह्मास्त्र
जिससे पराजित हैं तमाम
कुलीन नगरीय लोग
आप और वे
भर देता है इसका लाल रंग
क्रांति की खुशबू
और चारखाने पहुँचा देते हैं
अरब देश
और रामनामी
पहुँचाती श्रद्धाद्वार
पटरी, हाट, बाजार
कहीं भी जाओगे
पा जाओगे मन चीन्हे
सस्ते सामानों की हर दुकानों में
साधारण सूची वस्त्र का यह अनमोल टुकड़ा
गमछा।
सर्दियों से
ताल ठोक बहादुरी से
क्षमता और
सक्षमता के साथ
कर रहा है मुकाबला
फैशन बाजारों का
बढ़ती महँगाई
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विश्व बाजार का
अकेला डटा
गरीब के कंधे पर
अंगद के पाँव जैसा
कुछ तो बात है ही
गमछा और इसे इस्तेमाल करने वालों की
कि भले शरीर पर हो पूरा कपड़ा
कन्धे से हटता नहीं गमछा
हुआ होता मार्क्स का जन्म भारत में
निश्चय ही
कन्धे पर गमछा
सर्वहारा का बनता प्रतीक चिन्ह
नहीं पड़ी गांधी की भी नजर
इस पर
वर्ना प्रत्येक स्वयंसेवक के लिए
पहचान होता कन्धे पर रखना
गमछा
छा जाता गांधीवाद पर
छा भी गया था
याद करो संग्राम के दिनों की
पूरब से टोलियों की टोलियाँ
कंध पर गमछा रखे बढ़ रहे थे स्वाधीनता के पथ पर
अच्छा हुआ बचा रहा
विचारधारा की दृष्टियों से गमछा
वर्ना बन गया होता
किसी पार्टी का झंडा
वैसे अटपटा है
गमछे के संदर्भ में
चिन्ता या भय का उल्लेख
फिर भी चाहता हूँ
डरे लोग गमछों से
नैतिकता के प्रतीक से
वादों से मुकरे लोग
डरे सोच कर कि
कहीं चल न दें गमछाधारी
वादों की खोज में
कन्धे से कन्धा मिला
तोड़ते अवरोध
गिराते दीवारे
हाथों में फहराते
गमछा
स्वतंत्रता की लहर-सा।

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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

Disha का कहना है कि -

Nice poetry with a nice thought.
keep it up

RAKESH JAJVALYA राकेश जाज्वल्य का कहना है कि -

wakai ...... kavi ki nazro.n se kuchh nahi.n chhutata.


badhai... nayab rachna.

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

सुंदर रचना बधाई।

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