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Monday, February 21, 2011

यकीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा के देखो तुम


सभी दिखें नाखुश, सबका दिल टूटा लगता है
तमाम दुनिया का इक जैसा किस्सा लगता है

तुम्हीं कहो किसको दूँ अपने हिस्से का पानी
झुलस रहा ये, वो जल बिन मछली-सा लगता है

रिवायती ग़ज़लें चिलमन पे कह तो दूँ लेकिन
नये जमाने का कपड़ों से झगड़ा लगता है

यकीं न हो तो गूगल अर्थ पे जा के देखो तुम
बड़ा शहर भी खेत खिलोनों जैसा लगता है

नहीं किताबें पढ़ के होता जन-धन संचालन
भले भलों को इसमें खास तजुर्बा लगता है

यूनिकवि: नवीन चतुर्वेदी

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

बहुत सुंदर नवीन भाई, लाजवाब ग़ज़ल है। आम आदमी का दर्द व्यक्त करती ग़ज़ल तो है ही और साथ ही साथ हिंदी ग़ज़ल में नए प्रयोग जैसे "गूगल अर्थ" जो अब हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा सा बनता जा रहा है, इस ग़ज़ल को चार चाँद लगा रहे हैं। बहुत बहुत बधाई।

पद्म सिंह का कहना है कि -

खूबसूरत अशआर !
कहीं कहीं बहर की बन्दिशें ढीली हुई हैं... मगर गज़ल की तासीर लाजवाब है

आकर्षण गिरि का कहना है कि -

रिवायती ग़ज़लें चिलमन पे कह तो दूँ लेकिन
नये जमाने का कपड़ों से झगड़ा लगता है

bahut umdaa sher... vyangya bhi barhiya...

aakarshan

www.navincchaturvedi.blogspot.com का कहना है कि -

धर्मेन्द्र भाई आप जैसे कला प्रशंसकों की संगत का असर है ये| सराहना के लिए सहृदय आभार मित्र|

www.navincchaturvedi.blogspot.com का कहना है कि -

पद्म सिंह भाई नमस्कार| आपकी बात यदि आप पूरी कर देते तो मुझे अपनी भूल पता चल जाती|
सराहना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया बंधुवर|

आपके ब्लॉग पर ताऊ भतीजा उवाच छाप दोहे पढे, इसलिए आप को इस बार की समस्या पूर्ति में आमंत्रित करता हूँ, मित्र मंडली सहित पधारिएगा| लिंक है :- http://samasyapoorti.blogspot.com

www.navincchaturvedi.blogspot.com का कहना है कि -

आकर्षण कुमार भाई तारीफ करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया| दरअसल अक्सर लोग मुझसे कहते हैं की मैं रिवायाती गज़लें कम लिखता हूँ, इसलिए इस बार सोचा मन की बात कह ही दूँ| आपको मेरी बात पसंद आई, मेरा सौभाग्य है|

vivek.anjaan@gmail.com का कहना है कि -

नहीं किताबें पढ़ के होता जन-धन संचालन
भले भलों को इसमें खास तजुर्बा लगता है
प्रिय नवीन जी
लाजवाब अतिउत्तम बहुत दिनों बाद कोई शेर पढ़ा जो हमारी शिक्षा प्रणाली पर प्रहार करता है. मैंने कई साल पहले एक शेर सुना था आपको नजर करता हूँ.
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढकर ये भी हम जैसे हो जायेंगे.
आशा है आपको आगे भी पढ़ने का मौका मिलेगा
आपका शुभेछु "विवेक कुमार 'अंजान'"

rachana का कहना है कि -

रिवायती ग़ज़लें चिलमन पे कह तो दूँ लेकिन
नये जमाने का कपड़ों से झगड़ा लगता है
kya baat kahi hai .bahut khoob
badhai
rachana

www.navincchaturvedi.blogspot.com का कहना है कि -

भाई विवेक कुमार जी आप ने एक उम्दा शे'र शेयर किया है|
मेरे प्रयास की सराहना करने के लिए आभार बन्धुवर| मेरी अन्य रचनाएँ मेरे ब्लॉग "ठाले बैठे" पर उपलब्ध हैं|
http://thalebaithe.blogspot.com/

www.navincchaturvedi.blogspot.com का कहना है कि -

रचना जी आपने पंक्तियों के मर्म को समझते हुए इस गजल को जो सम्मान दिया उस के लिए सहूर्दय आभार|

मुकेश कुमार तिवारी का कहना है कि -

नवीन जी,

बहुत अच्छे लगे शे’र कहें है जो आपने फिर वो चाहे रिवायतों की बात हो या कपड़ों की चाहे अपने शहर की तलाश हो अपने ही घर में बैठकर। गूगल-अर्थ के प्रयोग कुछ इस तरह लगा जैसा मंच्यूरियन जो हम खा रहे हैं यहाँ भारत में उसे में कार्नफ्लॉवर कोफ्ता कहूँ तो ठीक रहेगा वर्ना जो चीन में खाया है वह तो बेमजा था।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

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