अक्टूबर प्रतियोगिता की दूसरे पायदान की रचना एक ग़ज़ल है। इसके रचनाकार विनीत अग्रवाल की हिंद-युग्म पर यह दूसरी प्रकाशित रचना है। इससे पहले अगस्त माह मे उनकी एक गज़ल आठवें स्थान पर रही थी।
पुरस्कृत कविता: ग़ज़ल
हमसफर यूँ अब मेरी मुश्किल हुई
राह जब आसां हुई, मुश्किल हुई
हम तो मुश्किल में सुकूं से जी लिए
मुश्किलों को पर बड़ी मुश्किल हुयी
ख्वाब भी आसान कब थे देखने
आँख पर जब भी खुली, मुश्किल हुई
फिर अड़ा है शाम से जिद पे दिया
फिर हवाओं को बड़ी मुश्किल हुई
वो बसा है जिस्म की रग-रग में यूँ
जब भी पुरवाई चली, मुश्किल हुई
रोज़ दिल को हमने समझाया मगर
दिन ब दिन ये दिल्लगी मुश्किल हुई
मानता था सच मेरी हर बात को
जब नज़र उस से मिली मुश्किल हुई
होश दिन में यूँ भी रहता है कहाँ
शाम जब ढलने लगी मुश्किल हुई
क़र्ज़ कोई कब तलक देता रहे
हम से रखनी दोस्ती मुश्किल हुई
चाँद तारे तो बहुत ला कर दिए
उसने साड़ी मांग ली, मुश्किल हुई
नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई
रोज़ थोड़े हम पुराने हो चले
रोज़ ही कुछ फिर नयी मुश्किल हुई
जो सलीका बज़्म का आया हमें
बात करनी और भी मुश्किल हुई
और सब मंजूर थी दुशवारियां
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई, मुश्किल हुई
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
खुबसूरत ग़ज़ल कही ...हर शेर बहुत अच्छा है !
बधाई
विनीत जी
फिर अड़ा है शाम से जिद पे दिया
फिर हवाओं को बड़ी मुश्किल हुई
बहुत उम्दा.....
क्या कहें ऐसी गज़ल की शान में
लफ़्ज़ों का टोटा पड़ा ,मुश्किल हुई .....
विनीत जी ,
अभी गज़लों की क्लास में कुछ पढ़ा ..जिससे ये अंदाज़ा हुआ कि आपकी गज़ल पर मेरी टिप्पणी को अगर उसी काफिये में कहा जाए तो ये होना चाहिए
क्या कहें ऐसी गज़ल की शान में
लफ़्ज़ों की भारी कमी मुश्किल हुई
नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई
bahut behtreen likha hai apne. baar baar padhne ki ikcha ho rahi hai. har sher bahut umda.
vineet bhai
bahit bahut badhayi
bahut khushi huyi mujhe
“और सब मंजूर थी दुशवारियां
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई, मुश्किल हुई” आपको लिखने में आई दिक्कते, हमको मगर पढ़ने में ये मुश्किल हुई. विनीत जी आपने लिखा तो ठीक है मगर बार बार की मुश्किल कुछ ज्यादा मुश्किल पैदा कर रही है और किसी हद तक अखरती भी है. शायद मजमून अच्छा होने पर भी इसे पहला स्थान नहीं मिल पाया क्योंकि “लफज ढूँढने में थी आपको दुश्वारियां मगर जजों को फैसला करने में मुश्किल हुई” अश्विनी कुमार रॉय
ग़ज़ल खूबसूरत है मगर मुश्किल कुछ ज्यादा हो गई है। बधाई।
कल्पना
कल्पना
बंद खडकी का पट खुला
मानो जीवन को मिली नै उडान
क्यूंकि उसका सरीर था निष्क्रिय
उस की कल्पना को मिले नए रंग
अम्बर नीला, बादल सफ़ेद और थे कई रंग
कैसा अम्बर ? कैसे बादल और कैसा इन्द्र धनुष का रंग
सोचता ही रहा , इतने बरसो से लेता हुआ और सक्रिय.
चाँद तारे तो बहुत ला कर दिए
उसने साड़ी मांग ली, मुश्किल हुई
नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई
रोज़ थोड़े हम पुराने हो चले
रोज़ ही कुछ फिर नयी मुश्किल हुई
mujhe ye sabhi bahut achchhe lage
badhai
rachana
अहसास
जीवन एक नवजीवन का
चक्र है यह अदभुत इश्वेर का
स्रष्टि ने है फिर से दौराहा इतिहास
बेटी की कोख में पल रही है एक आस
याद आते हैं बो लम्हे जब हुआ था जन्म लाडली का
छोटी सी नाजुक सी गुडिया छाया सर्वत्र उल्लास
कब पली, बड़ी और था उस पर योवन छाया
माँ का आँचल छोड़ कब चल पड़ी बह काया
पिया का अपने पाने को साथ
आज वही नन्ही कलि एक पुष्प बनी
और खुद चल पड़ी मातृत्व के नाजुक पल की ओर
कल जिससे गुजारी थी माँ उसी अहसास की ओर
याद आता है हरपल वो लम्हा जो गुजरा था मैंने
एक हकीकत की साथ .
"यदि प्रेम मै हो जाओ, सुख निश्चित ही मिल जायेगा
जो सलीका बज़्म का आया हमें
बात करनी और भी मुश्किल हुई
बहुत ही सुन्दर पक्तियां ।
sabhi sudhi pathakon aur hind yugm parivaar kahrday se dhanyavaad
vieet ji, hamesha ki tarah awesome...
bahut bahut badhai aapko..
vineet mishra
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