अगस्त यूनिप्रतियोगिता की बारहवीं रचना धर्मेंद्र मन्नू की है। यह भी हिंद-युग्म के नये हस्ताक्षरों मे हैं। 14 अगस्त 1975 को आरा (बिहार) मे जन्मे धर्मेंद्र विज्ञान से स्नातक हैं। कम उम्र से नाटकों मे काम करने का शौक लगा तब से थियेटर विधा से जुड़े हैं। इनकी कुछ समीक्षाएं, लेख, लघुकथाएं आदि कुछ पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित हो चुकी हैं। अभी मुम्बई मे यात्री नाट्य संस्था से जुड़े हैं और फिल्म आदि मे अभिनय की रुचि भी रखते हैं।
कविता: गज़ल
मैं जानता हूँ दर्दे-जिगर ठीक नही है।
पर क्या करूँ मैं, मेरी उमर ठीक नही है।
वो कहते हैं, मस्ज़िद में खुदा ही नहीं होता
विश्वास है, झुक जाती कमर ठीक नही है।
जब भी किसी की उँगली उठी, खूँ उबल पडा
मैं मानता हूँ ज़िक्रे-समर ठीक नही है।
जी चाहता है उनको मैं ग़जल में ढाल दूँ
पर क्या कहूँ मैं, मेरी बहर ठीक नही है।
ऐसा है रास्ता, कोई मंज़िल नही जिसकी
सब कहते हैं कि ऐसा सफ़र ठीक नही है।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
ऐसा है रास्ता कोई मंज़िल नहीं जिसकी,
सब कहते हें ऐसा सफ़र ठाक नहीं है।
...नए भावों को शब्दों में बांध कर सुंदर ग़ज़ल का रूप दिया है आपने...बधाई।
बढिया ग़ज़ल
ऐसा है रास्ता कोई मंज़िल नहीं जिसकी,
सब कहते हें ऐसा सफ़र ठाक नहीं है।
खूबसूरत अल्फ़ाज की गज़ल, बहुत सुन्दर
You proved you are a wonderful poet..
bebhar hi sahi..
par bahaut bahuit khoob likhaa hai...
aapko badhaayi...
“ऐसा है रास्ता, कोई मंज़िल नही जिसकी
सब कहते हैं कि ऐसा सफ़र ठीक नही है।“ साहेब हमें तो ऐसे ही सफर अच्छे लगते हैं जिस में मंजिल ना आये बस चलते रहें चलते रहें ....ऐसी कवितायेँ पढते रहें . इस लाजवाब कविता के लिए साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय
"...पर क्या कहूँ मैं, मेरी बहर ठीक नही है।"
धर्मेन्द्र भाई, बह्र काफी हद तक ठीक है,अच्छी ग़ज़ल है। उपर्युक्त मिसरा पसंद आया।
आपकी ग़ज़ल में शब्द अपने सहज प्रवाह में बहते दिख रहे हैं। शब्दों को ज़बरन ठेलकर नहीं बैठाया है आपने।
वैसे किसी भी रचना में शब्द/भाव/विचारादि स्वयं ही उतरते हैं कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कोई बादल घनीभूत होकर स्वयं बरस पड़ता है, सृजनोपरांत कोई कवि/लेखक उसमें थोड़ा-बहुत काट-छाँट करके कमोवेश परिमार्जन/संशोधन भले कर ले। सृजनोपरांत किया गया कोई भी परिमार्जन/संशोधन कुछ-कुछ वैसा ही होता है, जैसे जन्मोपरांत प्लास्टिक सर्जरी! इससे सौन्दर्य निखरने के बजाय कभी-कभी बिगड़ भी जाता है... है कि नहीं?
जी चाहता है उनको मैं ग़जल में ढाल दूँ
पर क्या कहूँ मैं, मेरी बहर ठीक नही है।
ऐसा है रास्ता, कोई मंज़िल नही जिसकी
सब कहते हैं कि ऐसा सफ़र ठीक नही है।
बहुत ही सुन्दर शब्द, बेहतरीन प्रस्तुति ।
मन्नो जी ज़िदगी हमेशा बेबहरी ही चल्ती है जितना भी इसे बहर मे रखो कहीं न कहीं कुछ रह ही जाता है । बहुत अच्छी लगी आपकी गज़ल। बधाई।
aap sabka bahot bahot shukriya... apne is ghazal ko padha aur saraaha...
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