प्रतियोगिता की आखिरी यानी सोलहवीं कविता आलोक उपाध्याय 'नज़र' की है। आलोक उपाध्याय हिन्द-युग्म के यूनिकवि रह चुके हैं।
पुरस्कृत कविता
साँसे ज़ाया करती है और वक़्त रायेगाँ करती है
पागल जिंदगी उम्र भर चंद क़िस्से जमा करती है
किताबों पे पड़ी धूल हो या फर्श की बेज़ार सिलवटें
मेरे घर की हर शय मेरी शख्सियत बयां करती है
बदनाम गलियाँ तुम्हारी ही वहशत का नतीजा हैं
मासूमियत खिड़की पे बैठ खुद को जवां करती है
बस तुम्हें ही दिखती होंगी मुझमें हजारों खामियां
मेरी माँ आज भी मुझपे उतना ही गुमां करती है
इसकी जद्दोजहद की इन्तहा है दो जून की रोटी
ये मुफलिसी मुस्तकबिल की फिक्र कहाँ करती है
रोते रहने से कभी कोई फायदा नहीं होता है "नज़र"
याद दिल से निकालो यही अश्कों को रवां करती है
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
किताबों पे पड़ी धूल हो या फर्श की बेज़ार सिलवटें
मेरे घर की हर शय मेरी शख्सियत बयां करती है
बदनाम गलियाँ तुम्हारी ही वहशत का नतीजा हैं
मासूमियत खिड़की पे बैठ खुद को जवां करती है
mujhe bahut achchhe lage ye sher
bahut sunder
badhai
rachana
kya bat hai yes sher ki tunhe hi dikhti hai khamiya mujhme bhut achcha lga
kya bat hai yes sher ki tunhe hi dikhti hai khamiya mujhme bhut achcha lga
badhiya gazal kahi hai. badhai
बस तुम्हें ही दिखती होंगी मुझमें हजारों खामियां
मेरी माँ आज भी मुझपे उतना ही गुमां करती है
इसकी जद्दोजहद की इन्तहा है दो जून की रोटी
ये मुफलिसी मुस्तकबिल की फिक्र कहाँ करती है
बहुत ही गहरे भावों के साथ्ा सुन्दर भावमय पंक्तियां ।
अच्छे और सशक्त भाव लिए..सुंदर रचना...
अच्छे और सशक्त भाव लिए..सुंदर रचना...
hmmm...achhi rachna ...
बहुत सुंदर रचना. मैंने अपने ब्लॉग संग्रह को एक नया नाम दिया है.
आपका पूर्ववत प्रेम अपेक्षित है .
www.the-royal-salute.blogspot.com
बस तुम्हें ही दिखती होंगी मुझमें हजारों खामियां
मेरी माँ आज भी मुझपे उतना ही गुमां करती है
bahut hi achchhi lagi ye panktiya...
बस तुम्हें ही दिखती होंगी मुझमें हजारों खामियां
मेरी माँ आज भी मुझपे उतना ही गुमां करती है
माँ तो माँ होती है, खामिया कब देखती है
यक़ीनन मेरे भाई... ’अपने बच्चे सबको प्यारे,रावण हों या राम!’
सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई! यदि बह्र(छंद) में थोड़ा और कसाव का निर्वाह हो जाता, तो मज़ा आ जाता। शे’रों की प्रवहमानता में यत्र-तत्र बाधा जान पड़ती है।... तथापि भाव-सम्प्रेषण की दृष्टि से एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल है यह!
अच्छी है..!
“बस तुम्हें ही दिखती होंगी मुझमें हजारों खामियां
मेरी माँ आज भी मुझपे उतना ही गुमां करती है” यकीनन माँ तो माँ ही है जिसकी कोई उपमा नहीं हो सकती. ज़ाहिर है उपमा में माँ से पहले उप जो लग जाता है. माँ कहना और कहलवाना दोनों ही कुदरत की अज़ीम तखलीक की मिसाल है. बेशक माँ ...माँ ही हो सकती है कोई और ये जिम्मेवारी संभालने के काबिल नहीं हो सकता. आपकी कविता में माँ को मेरा सलाम....इसके आगे सभी नतमस्तक हैं. इतनी बढ़िया कविता के लिए बहुत बहुत साधुवाद ! अश्विनी कुमार रॉय
hello, good 1.
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