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Wednesday, September 01, 2010

मैं और वह


प्रतियोगिता की 11वीं कविता के रचयिता राजेश `पंकज´ हैं।
•शिक्षाः कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से कला स्नातक। पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि। इग्नू से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर उपाधि। इग्नू से अंग्रेज़ी/हिन्दी अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
•लेखन कार्यः हिन्दी कहानी, कविता, निबन्ध, रिपोर्ट विधाओं में मौलिक लेखन, विभागीय नियमावलियों व अन्य सामग्री, पंजाबी गीतों, तीन पंजाबी बाल उपन्यासों तथा एक पंजाबी उपन्यास का हिन्दी अनुवाद।
•प्रकाशनः एक कहानी संग्रह `रामदई की आँखें´ वर्ष 2007 में प्रकाशित जिस पर लिखा लघु शोध कार्य कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा एम.फिल. (हिन्दी) के लिए स्वीकृत। एक काव्य-संग्रह `कोयल नाराज है´ हरियाणा साहित्य अकादमी के सहायता अनुदान से प्रकाशित। कहानी, कविता, निबन्ध, रिपोर्ट विधाओं में रचनाएं प्रतिष्ठत पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित।
•पुरस्कार व सम्मानः हिन्दी निबन्ध लेखन, हिन्दी कविता लेखन, हिन्दी साहित्य प्रश्नोत्तरी, हिन्दी शब्द-ज्ञान, हिन्दी कविता पाठ की प्रतियोगिताओं में विभिन्न विभागों, संस्थाओं व समितियों द्वारा पंद्रह से अधिक बार पुरस्कृत। नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति द्वारा साहित्यकार सम्मान।

पुरस्कृत कविताः मैं और वह

वह पगला-सा,
वह खोये बच्चे-सा,
वह झुण्ड से बिछुड़े पशु-सा,
वह युद्ध में पथ से भटके सैनिक-सा,
वह शापित प्रेतात्मा-सा,
वह यौवनहीना गणिका-सा,
वह पगला-सा।
वह हर रास्ते को
आर्द्र नयनों से देखता जाता,
वह हर पथ की धूली में खुर गिनता जाता,
वह हर पर्वत पर विजय पताका ढूँढ़ता जाता,
हर गुहा में जैसे आश्रय को ललचाता,
हर गंध व स्वर से घबराता,
वह पगला-सा।
वह मेरा मित्र,
वह मेरा प्रिय, बन्धु, भ्राता,
वह मेरे एकाकीपन में आ जाता,
वह हँसता, रोता, गाता, टूटे स्वप्न सुनाता
वह मुझे डाँटता फिर मुझे मनाता,
नाम तुम्हारा ले ले चिढ़ाता,
वह पगला-सा।
वह मुझे कहता है,
मैं तुम, मैं-मैं हूँ,
क्यों? कैसे?
हँस कर समझाता,
मेरी कल्पना का आईना दिखा
मेरा मुँह दिखाता
वह-मैं, मैं-वह....
मैं समझ जाता हूँ,
मैं भी पगला हो जाता हूँ,
वह भी पगला है।
टिक टिक टिक टिक,
मेरी घड़ी में समय भागता है,
उसकी घड़ी का रूका हाथ,
बीता समय दिखाता है।
मेरे बीतते पल मुझे उस पल से
दूर लिए जाते हैं।
उसका समय सालों पीछे भटकता भटकाता है
मेरे पाँव उसके समय से बँधे हैं
वह पगला-सा।
मेरी घड़ी का समय,
जीवन के पाँवों से बँधा है,
जीवन समय के साथ भागता है, मुझे घसीटता है,
मैं उसके समय के बीच ईसा-सा,
यातना की सलीब से बँधा हूँ,
वह पगला-सा
मेरे जख्मी पैर, अपने
समय के बंधन से छोड़ता नहीं
क्यों?
अपने समय का निर्जीव हाथ तोडता नहीं
मुझे ईसा की तरह उससे प्यार है
क्षमा करता हूँ उसे,
पर वह
पाँव छोड़ता नहीं।

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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

manu का कहना है कि -

आज किसी और ही ढंग से आये थे हम..इस पोस्ट पर..


अच्छी कोशिश कि है लेखक महोदय ने...

उन्हें बधाई..

सदा का कहना है कि -

वह पगला-सा
मेरे जख्मी पैर, अपने
समय के बंधन से छोड़ता नहीं
क्यों?

सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

यातना की सलीब से बँधा हूँ,
वह पगला-सा
मेरे जख्मी पैर, अपने
समय के बंधन से छोड़ता नहीं
क्यों?
अपने समय का निर्जीव हाथ तोडता नहीं
मुझे ईसा की तरह उससे प्यार है
क्षमा करता हूँ उसे,
पर वह
पाँव छोड़ता नहीं।
कल्पना साक्षात जीवंत हो गई है आपकी इस कविता में. मगर आपकी कल्पना की रफ़्तार का तो जवाब ही नहीं ! इस खूबसूरत कृति के लिए आपको साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय

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