अगस्त माह की यूनिप्रतियोगिता के माध्यम से कई नये नाम भी हिंद-युग्म के कविता के मंच से जुड़े हैं। दसवें स्थान की कविता के रचनाकार कौशल किशोर भी उन्हीं मे से एक हैं। 1 जनवरी 1954 को सुरेमनपुर, बलिया मे जन्मे कौशल किशोर जी वैसे विगत कई वर्षों से साहित्य-कर्म मे संलग्न हैं और पहल, वर्तमान सहित्य, हंस, उत्तरार्ध जैसी दर्जनों पत्रिकाओं व समाचार पत्रों मे प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ कविताओं के अनुवाद बाँग्ला, असमिया, पंजाबी व तेलगू आदि मे भी हुए हैं। ’जन संस्कृति मंच’ के संस्थापकों मे रहे कौशल किशोर जी उसके राष्ट्रीय संगठन सचिव भी रहे हैं तथा ’युवालेखन’, 'परिपत्र’ और ’जन-संस्कृति’ पत्रिकाओं के संपादक भी रह चुके हैं। वे वर्तमान मे लखनऊ मे लेनिन पुस्तक केंद्र के अध्यक्ष हैं और पिछले तीन वर्षों से ’प्रतिरोध का सिनेमा’ विषयाधारित लखनऊ के फ़िल्म समारोह के मुख्य कर्ता-धर्ता भी हैं। अपनी रचनात्मकता के बारे मे उनका कहना है कि "पेशे से इंजीनियर पर सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का कारीगर बनना ही जीवन का ध्येय है। जन सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों के सिपाही के रूप में लगातार सक्रिय होना ही रचनात्मक ऊर्जा का स्रोत है।"
संपर्क: एफ.3144, राजाजीपुरम, लखनऊ.226017
फोन : 09807519227
पुरस्कृत कविता: इन्हीं आँखों में है उसका हिन्दुस्तान
एक औरत सड़क किनारे बैठी
पत्थर तोड़ती है
वह पत्थर नहीं तोड़ती
जिन्दगी घसीटती है
एक औरत उन पत्थरों से बनी
सड़क पर सरपट दौड़ती है
कार की तरह
उसमें बैठी हुई
एक औरत के दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
पहली मंजिल से दूसरी मंजिल
दूसरी से तीसरी
बांस की सीढियों पर चढती हुई
वह मिट्टी की गंध पहुँचाती है
एक औरत रहती है
इस बहुमंजिली इमारत में
मिट्टी की गंध से बेखबर
श्रम से बेखबर
उसकी दुनिया से बेखबर
एक औरत प्रताड़ना की पीड़ा झेलती है
अपमान के कड़ुवे घूँट पीती है
आत्मदाह करती है
या सरेआम जलायी जाती है
एक औरत इस घटना पर आंसू बहाती है
वह फर्क नहीं मानती
सभा सोसायटी में जाती है
हर मंच की शोभा बढ़ाती है
समानता पर
औरतों के जलाये जाने के विरुद्ध
लम्बा भाषण देती है
खूब तालियाँ बटोरती है
वह खुश है कि
औरतों का बिल
उसने पारित करा लिया है
अब दिखेंगी औरतें हर जगह
हर सदन में
मुख्य धारा में होंगी औरतें
एक औरत देख रही यह सब
अपलक निगाहों से
अकड़ गई है उसकी पीठ
तन गई हैं गर्दन की नसें
हाशिए पर खड़ी-खड़ी
पथरा गई हैं उसकी आँखें
इन्हीं आँखों में है उसका हिन्दुस्तान।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
हाशिए पर खड़ी-खड़ी
पथरा गई हैं उसकी आँखें
चलो इस बहाने बिल तो पारित हो गया..
बिलों से हालात तो नहीं बदलते
सुन्दर रचना
कविता एक ओर मार्मिक है वहीं दूसरी और सामाजिक दिखावे पर तीखा व्यंग्य भी करती प्रतीत होती है । सराहनीय कविता...बधाई।
sateek ....bahut bahut shubhkamnayen
(अपनी माटी परिवार की तरफ से उन्हें बहुत बधाई और उनकी इस यात्रा के लिए बहुत सी शुभकामनाएं भी )
अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति....अति सुन्दर रचना के लिए बधाई
aapki rachnaa fir bhi achchhi hai...
sach mein....!
सुन्दर शब्द रचना ।
“एक औरत देख रही यह सब
अपलक निगाहों से
अकड़ गई है उसकी पीठ
तन गई हैं गर्दन की नसें
हाशिए पर खड़ी-खड़ी
पथरा गई हैं उसकी आँखें
इन्हीं आँखों में है उसका हिन्दुस्तान।“ कितनी विडम्बना है कि हमारे देश में हाशिए पर खड़ी औरतों की तादाद ज्यादा है. आपने अपनी संवेदना का चित्रण जिन शब्दों में किया है वह प्रशंसनीय है. शायद असली हिन्दुस्तान इन्हीं आँखों में बसता है. इस सुन्दर कविता के लिए आपको साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय
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