प्रतियोगिता की 12वीं कविता दीपक कुमार की है| इनका जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में अगस्त १९७९ ई. में हुआ| पिता जी मज़दूरी करते थे लेकिन परिवार का बोझ अधिक था| प्राथमिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक पाठशाला में हुई| बारहवीं कक्षा गाँव के इंटर कालेज से(१९९७), कला में स्नातक (हिंदी, अंग्रेजी ,अर्थशास्त्र ) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से(२०००), परास्नातक (हिंदी ) महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (२००२) तथा शिक्षा में स्नातक- पं. दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय(२००४) से प्राप्त किया| राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट ) २००७ में उत्तीर्ण किया| आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण कक्षा छठवीं से पिता जी के साथ गर्मी की छुट्टियों में मज़दूरी करते और फिर पढ़ाई| २००५ ई. में लम्बी बिमारी से पिता जी का देहांत हो गया और फिर बेरोज़गारी, परिवाए का बोझ, तीन छोटे भाई-बहन उनकी पढ़ाई और परिवार का खर्च| इन्होंने भी पिता जी का व्यवसाय अपनाया और मकान बनाने का काम करने लगे लेकिन साथ-साथ पढ़ाई कभी रुकने नहीं दिया| २००५-०६ में मज़दूरी के साथ घर-घर जाकर टयूसन पढ़ाये| २००६-०७ में सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल, वाराणसी में संविदा पर टी.जी.टी. हिंदी पद पर कार्य किया और अगस्त २००७ में केंद्रीय विद्यालय संगठन में स्नातकोत्तर हिंदी शिक्षक के पद पर नियुक्ति हुई| वर्तमान समय में केंद्रीय विद्यालय संख्या-१, ईटानगर में कार्यरत हैं| कविता ,गज़ल, कहानी, निबन्ध लिखने का शौक, धार्मिक एवं दार्शनिक पुस्तक अध्ययन का शौक। माहात्मा गांधी राष्ट्र भाषा प्रचार संस्था, पुणे, महाराष्ट्र की ओर से २०१० मेन राष्ट्रभाषा भूषण पुरस्कार से सम्मानित। विद्यालयीन पत्रिका का संपादन कार्य तीन वर्षो से कर रहे हैं।
पुरस्कृत कविताः कैसा बचपन कैसी शिक्षा
सुना था तीसरा नेत्र है आदमी का
शिक्षा ही,
आधार है देश की तरक्की का|
अनेक प्रयास किए गए
शिक्षा का स्तर बढ़ाने का,
अनिवार्य हुई शिक्षा
बच्चों के लिए...
शिक्षा का स्तर बढ़ा
बनाई गई तरह-तरह की योजनाएँ|
लेकिन आज भी, बच्चे पढ़ते हैं,
सरकारी कागजों पर|
विद्यालयों का रास्ता
नहीं देख पाते बहुत से बच्चे,
शिक्षा के ठेकेदार बैठते हैं
होटलों में,
बाते करते हैं अनिवार्य बाल शिक्षा की
और उन्हीं के जूते टेबल को
साफ़ करता दस वर्ष का बच्चा
निकल जाता है|
प्रदेश का पुस्तक मेला,
बहुत बड़ा पुस्तक मेला,
विविध भाषा की
रंग-बिरंगी पुस्तकें|
एक किशोरी बारह वर्ष की,
आँखों में कैशोर्य के सपने,
मैले-कुचैले कपड़े पहने,
हाथों में चिर-परिचित-
पीढ़ियों से चली आ रही विरासत
झाड़ू ....................
झाड़ू लगाते-लगाते पुस्तक देखती
ललचाई नज़रों से
फिर थोड़ा स्पर्श कराती
डरते-डरते चित्र देखती,
पढ़ने का प्रयास कराती शायद ...
शायद उसे पता नहीं था
अपने अधिकार का|
विद्यालय परिसर
कार्यशाला ज़ारी है,
नई शिक्षा पद्धति पर
प्रश्न था ........
कैसे हो बच्चों का मूल्यांकन?
बहुत से गुरुजन प्रस्तुत कर रहे थे
अपने-अपने कर्म|
लोग नाश्ता करते हैं और
नाश्ता कराता है लगभग आठ वर्ष का
एक मासूम ....
बरतन धोता है|
उसकी नज़र बरतन पर कम
मैदान में खेलते बच्चों पर ही टिकी है .......
सब चले गए, अब वह खाली है
दो बच्चे उसी के उम्र के,
खेल रहे थे बास्केट बाल
वह बच्चा दौड़ता है उन्हीं के साथ
और आनंदित होता है|
शायद छू लेना चाहता है,
बॉल केवल एक बार|
एक मासूम सा बच्चा
चाय देता है स्कूल में
खोया-खोया सा रहता है
शायद स्कूल में आकर
बैठ जाता है किसी कक्षा में|
क्या यही अधिकार है
शिक्षा का|
सारा देश भरा पडा है
बाल शिक्षा के अधिकार के
विज्ञापनों से पर
सब सारहीन .......!
यह कैसा बचपन और कैसी शिक्षा है?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
7 कविताप्रेमियों का कहना है :
acchi kavita hai deepak ji, badhai
hindyugm ke manch par ghazipur ke kayi kavi dikhe..aap ko dekh kar achha laga...kavita achhi hai ..badhai
एक मासूम सा बच्चा
चाय देता है स्कूल में
खोया-खोया सा रहता है
शायद स्कूल में आकर
बैठ जाता है किसी कक्षा में|
क्या यही अधिकार है
शिक्षा का|
सारा देश भरा पडा है
बाल शिक्षा के अधिकार के
विज्ञापनों से पर
सब सारहीन .......!
यह कैसा बचपन और कैसी शिक्षा है?
...gaon kee baat to bahut door aaj bhi shahar mein hi shiksha ka bura haal hai.... do jun kee roti ko bhatkte bachhon se kaun puchhne chala ki shiksha jaruri hai ya roti.... .. 'bhukhe ped bhajan nahi hot gopala'...
नई शिक्षा पद्धति पर
प्रश्न था ........
कैसे हो बच्चों का मूल्यांकन?
बहुत से गुरुजन प्रस्तुत कर रहे थे
अपने-अपने कर्म|
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
good poem
Very nice poem
Very nice poem
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