प्रतियोगिता की 10वीं कविता डिम्पल मल्होत्रा की है। डिम्पल की स्कूल की पढ़ाई गाँव में हुई, हिंदी एवं पंजाबी में परास्नातक हैं। किताबें पढ़ना इनको हमेशा से अच्छा लगता रहा है, पर पाठ्यक्रम की किताबें पढ़ने से थोड़ा परहेज रहा है। लिखती वो हैं, जो मन करता है जो महसूस करती हैं। लिखने से ज्यादा पढ़ना अच्छा लगता है। कितना भी पढ़ लें, कम लगता है।
पुरस्कृत कविता
अब नहीं शुरू होती कहानियाँ..
"बहुत देर पहले की बात है से"
न ही खत्म होती है..
..ख़ुशी ख़ुशी रहने पे..
नहीं बचा बारिशों में
कोई भी संगीत अब नज्मों के लिए..
पाग़ल बादल
उड़ा ले जाते है सारे
गुलाबी पन्ने..
भयानक आवाज़ों से
डरा देते है
आस्माँ छूते
ऊँचे दरख्त
नन्हें-नन्हें परिंदों को..
सात जंगलों, सात समन्दरों
के पार से,
अब कोई नहीं आता..
स्याह पहाड़ों को काटकर,
कोई नहीं खोजता नये रास्ते..
भले ही,
कोई राजकुमार धरती की तहों में दबा
जादुई खज़ाना ढूँढ़नें नहीं निकलता..
पर परिकथाएँ अब भी अच्छी लगती है..
तस्वीर में
पीछे इंद्रधनुष चाहे नहीं दिखता
पर दूर कहीं
भीगे पन्नों पे गीली नज्में अभी साँस ले रही है..
नहीं क्या?
पुरस्कार: विचार और संस्कृति की पत्रिका ’समयांतर’ की एक वर्ष की निःशुल्क सदस्यता।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
बेहतरीन अभिव्यक्ति...
बधाई....
कविता की शुरुआत बहुत अच्छी लगी...
पागल बादल उड़ा ले जाते हैं...सारे गुलाबी पन्ने...
बहुत खूब...
पर परीकथाएँ अब भी बहुत अच्छी लगती हैं...
सचमुच...
तस्वीर में
पीछे इंद्रधनुष चाहे नहीं दिखता
पर दूर कहीं
भीगे पन्नों पे गीली नज्में अभी साँस ले रही है..
नहीं क्या?
पर दूर कहीं
भीगे पन्नों पे गीली नज्में अभी साँस ले रही है..
नज़्मों की कोंपलें तो एहसास की धरातल पर उगती हैं .. ये साँस लेंगी ही
रचना अच्छी लगी
हाँ..बिल्कुल
बधाई. पुरस्कार के लिए.
pyaari nazm kahi hai dimple ji. badhai
अच्छी रचना है, बधाई।
बढ़िया अभिवियक्ति बधाई.
इस सुंदर नज़्म को और पहले स्थान मिलना चाहिए था
सात जंगलों, सात समन्दरों
के पार से,
अब कोई नहीं आता..
बहुत सुंदर लिखा है
सात जंगलों, सात समन्दरों
के पार से,
अब कोई नहीं आता..
स्याह पहाड़ों को काटकर,
कोई नहीं खोजता नये रास्ते..
गहरे शब्द, बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
जमीन से जोड्ती रचना....बधाई
बहुत सुन्दर कविता पढ़ने को मिली. धन्यवाद.
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