ऋतु सरौहा हिन्द-युग्म पर लगातार प्रकाशित होने वाली युवा कवयित्री हैं। जून माह की प्रतियोगिता से इन्हीं द्वारा रचित एक कविता प्रकाशित कर रहे हैं, जिसने चौदहवाँ स्थान बनाया है।
पुरस्कृत कविता: पारो
बंद कर दी थी
शिकायत भी
खुदा से उसने,
कहती थी
"जो खुद से पत्थर का
इल्जाम हटाने के लिए
गढ़ ना पाया एक जिस्म भी
अपनी खातिर
वो मेरी किस्मत भी
क्या गढ़ेगा?"
"पारो" कहके बुलाते थे उसे सब,
जाने-पहचाने हाथों ने उसे
कली सी उम्र में ही बेचा था,
दाम था उसका बस
इक ऊँट जितना,
उन्हीं हाथो ने लूटा
उसे मारा गया, नोचा गया,
जिस्म के हिस्सों को
झुलसा भी दिया,
मगर पुचकारते हैं ऊँट को ज्यूँ
किसी ने एक दफा
पुचकारा भी नहीं,
बसेरे को मिली तो जोहड़ के करीब
चार डाँडो की दीवारों पे
एक छप्पर की छत्त.....
बेरहम अंधे थपेड़ों से वो तो
टूटती और बिखरती ही रही ,
मगर वो झोपड़ी
बरसातो की मिट्टी में भी
खड़ी रहती थी,
वही साथी था उसका
हर हालात में रहता था वहाँ ...
और हर हालत
में वो ये सोच के
उठ आती थी
कि ख़त्म हो गया होगा
शायद वो दौर बिकने का
उसी के साथ उसी दिन शायद,
मगर नहीं
सुना है आज फिर से इक पारो
आई है फिर से देहलीज़ पे इस
जो जुड़ता है
कई बदनामियों के गाँवों से,
खरीदने और बेचे जाने का
यह सिलसिला
जम गया है वक़्त में शायद,
इक कली फिर से खुशबु समेटे
अपने अपनों की
ज़रुरत की सर्द चौखट पे
फिर से बिखरी है और बिक गयी है ..
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3 कविताप्रेमियों का कहना है :
और हर हालत
में वो ये सोच के
उठ आती थी
कि ख़त्म हो गया होगा
शायद वो दौर बिकने का
तथाकथित सभ्य समाज में खरीद-फ़रोख्त तो आम बात है ..
बहुत मार्मिक रचना
ज़रुरत की सर्द चौखट पे
फिर से बिखरी है और बिक गयी है ।
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
सुन्दर रचना !
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