प्रतियोगिता की तेरहवीं कविता मनसा आनंद मानस की है। मानस लम्बे समय से हिन्द-युग्म पर सक्रिय हैं, मगर पहली बार यूनिकवि प्रतियोगिता के माध्यम से प्रकाशित हो रहे हैं। एक किसान घर में पेदा हुये, तो जाहिर है कहीं पेड़ पोधो से जुडाव तो होगा ही। फिर जीवन में ऊचे-नीचे, तल देखे, ओशो से जुडने के बाद ही सही मायने में पता चला की इनका होना क्या है। अब जीवन में कुछ माधुर्य कुछ सु्गंध ओर ताजगी का अहसास कर रहे हैं। दिल्ली में रहते हैं और अपना निजी व्यवसाय चलाते हैं।
कविता: तुम बन स्मृति ढक लेते हो,
तुम बन स्मृति ढक लेते हो,
मेरे होने के एक कुहासे को।
एक अपरिचित से अस्पृश्यता भी, रह-रह कर जब छू जाती है।
एक स्फटिक, प्रतिबिम्ब स्वेत पटल, दर्पण में आ कुछ कहता है।
हम ढूँढ़े तुम्हें उन चेहरों में, नित बनते रोज बिगड़ते है ।
धुँधली राहे अंजान डगर, क्यों मूक पथिक बन जीते है ।
फैले जीवन के रंगों को,
क्यों धुंधला करते जाते हो।
तुम बन स्मृति ढक लेते हो.....
न मेरा होना पास रहा, न अंहकार का साथ रहा।
सुरमई चाँदनी बैल में, कर अंधकार उपहास रहा।
जो अपना-अपना कहते थे, कोसों न उनका साथ रहा।
भय मुझको फिर क्यों लगता है, जब तेरा सर पर हाथ रहा।
तू छू कर एक रहस्य को,
फिर क्यों जीवित कर जाते हो।
तुम बन स्मृति ढक लेते हो........
थमता न साँसों का स्पन्दन, घुट-घुट कर हम जीते हे।
संकुचित दुर्गों की परिधि यों में, हम जड़वत हो कर मरते है।
जग कहता है जिसको अमृत, वो विष के प्याले पीते है।
टूटे-बिखरे टुकड़ो से भी हम,पैबन्द जीवन का क्यों सीते है।
था जीवन जो प्यालों भरा, अब वो भी रितते दिखते है।
पलकों पे सोते सपनों को,
तुम कब जीवत कर पाते हो।
तुम बन स्मृति ढक लेते हो.......
जब तुम होते हो पास मेरे, कोई आकर मुझे जगाता है।
कितने तारों की छाती पर यूँ चाँद दमकता पाता है।
इस आस पूछती रहती है, क्यों बैठ पपीहा गाता है।
उन्माद फैलता तृप्ति का, आलोकिक करता जाता है।
सुरमई चांदनी बेला में,
तुम मधुरस बन छा जाते हो।
तुन बन स्मृति ढक लेते हो।
मेरे होने के एक कुहासे को.....
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
जग कहता है जिसको अमृत, वो विष के प्याले पीते है।
टूटे-बिखरे टुकड़ो से भी हम,पैबन्द जीवन का क्यों सीते है।
था जीवन जो प्यालों भरा, अब वो भी रितते दिखते है।
जीवन का कटु यथार्थ चित्रित किया है.
थमता न साँसों का स्पन्दन, घुट-घुट कर हम जीते हे।
संकुचित दुर्गों की परिधि यों में, हम जड़वत हो कर मरते है।
श्वासों का स्पन्दन ही तो है जो जीजिविषा प्रदान करती है वर्ना तो ....
सुन्दर कविता
थमता न साँसों का स्पन्दन, घुट-घुट कर हम जीते हे।
संकुचित दुर्गों की परिधि यों में, हम जड़वत हो कर मरते है।
सुंदर शब्दों का संगम!
गहरे भावों के साथ बेहतरीन शब्द रचना ।
स आस पूछती रहती है, क्यों बैठ पपीहा गाता है।
उन्माद फैलता तृप्ति का, आलोकिक करता जाता है।
सुरमई चांदनी बेला में,
तुम मधुरस बन छा जाते हो।
तुन बन स्मृति ढक लेते हो।
मेरे होने के एक कुहासे को..... बहुत सुन्दर प्रेम अभिव्यक्ति के साथ विरह की पीडा बहुत अच्छी लगी रचना आनन्द जी को बधाई
इस भोर बुलाती रहती है,
हम करवटल ले सो जाते है,
वह कलरव गीत पपीपे है,
है मुक विलूप्त हो जाते है
दिन रात वो छलती आस हमें
कहीं चैन न लेने देती है
दामन में बिखरे कांटो को
क्यों टीस न होने देती है
जी चाहता है में उड जाऊं
पर पंख हमें छल जाते है.......
स्वामी आनंद प्रसाद मनसा
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