मई 2010 की यूनिकवि प्रतियोगिता की 14वीं कविता अत्यंत सक्रिय ब्लॉगर लवली गोस्वामी की है।
कविता: चरित्र और आवरण
रंगमंच में कलाकारों के चहरे हैं...
भाव पैदा करने की कोशिश करते
वो अपनी कला का सर्वोत्तम देना चाहते हैं
इन भाव भागिमाओं से
हर दर्शक को आश्चर्य चकित कर देना चाहते हैं
सफ़ेद रोशनी में भावों की कई तहों से लिपटे चेहरों में
मुझे कोई अभिनय नजर नही आता
यह सब सच-सा लगता है
जैसे वे लोग अपने अन्दर का कुछ उड़ेल कर सामने रख देना चाहते हैं
वे जी रहे हैं खुद को इन चरित्रों के आवरण में
अब खत्म हुआ नाटक
पहुँची मैं जनरव के मध्य
इस आशा के साथ की यहाँ भाव बनावटी नही होते
पर आश्चर्य है यहाँ के चरित्रों में सब कुछ अलग-सा दीखता है
निकाल लेना चाहते हैं ये अपने जीवन के अनुभवों से सर्वोत्तम
पर सब बनावटी-सा लगता है
जैसे लोग अपने अन्दर से पुरे वेग से फूटता कुछ
जबरन रोक लेना चाहते हैं, क्या है यह?
सकारात्मकता तो इतना विकृत नहीं करती चहरे को
सोंचती हूँ, लगता है यह भी जी रहे हैं आवरण में
पर इस बार आवरण खुद इनके चरित्रों पर है
कविता: चरित्र और आवरण
रंगमंच में कलाकारों के चहरे हैं...
भाव पैदा करने की कोशिश करते
वो अपनी कला का सर्वोत्तम देना चाहते हैं
इन भाव भागिमाओं से
हर दर्शक को आश्चर्य चकित कर देना चाहते हैं
सफ़ेद रोशनी में भावों की कई तहों से लिपटे चेहरों में
मुझे कोई अभिनय नजर नही आता
यह सब सच-सा लगता है
जैसे वे लोग अपने अन्दर का कुछ उड़ेल कर सामने रख देना चाहते हैं
वे जी रहे हैं खुद को इन चरित्रों के आवरण में
अब खत्म हुआ नाटक
पहुँची मैं जनरव के मध्य
इस आशा के साथ की यहाँ भाव बनावटी नही होते
पर आश्चर्य है यहाँ के चरित्रों में सब कुछ अलग-सा दीखता है
निकाल लेना चाहते हैं ये अपने जीवन के अनुभवों से सर्वोत्तम
पर सब बनावटी-सा लगता है
जैसे लोग अपने अन्दर से पुरे वेग से फूटता कुछ
जबरन रोक लेना चाहते हैं, क्या है यह?
सकारात्मकता तो इतना विकृत नहीं करती चहरे को
सोंचती हूँ, लगता है यह भी जी रहे हैं आवरण में
पर इस बार आवरण खुद इनके चरित्रों पर है
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23 कविताप्रेमियों का कहना है :
लवली जी का चरित्र और आवरण पढ़ कर वह तो रहस्यमयी लगती हैं।
जीवन भी तो एक रंगमंच ही है जहाँ हर चेहरा एक नकाब है ...
बहुत ही काम लोग ऐसे हैं जो इस आवरण के बिना नजर आते हैं और अगर कोई आना चाहे तो लोगों की तंगदिली वापस उसी आवरण में छिप जाने को बाध्यकरती है
आप कवितायेँ भी लिखती हैं ...मुझे पता नहीं था ...
सुन्दर !
yah sach hai naisargikataa is samay ka sabse bada shikaar hai aur yaqh kavita use benaqaab karne ka saarthak prayas karti hai
"आप कवितायेँ भी लिखती हैं ...मुझे पता नहीं था ..."
mujhe bhi pata nahi tha.. aur itni sundar kavita.. logon ke so called charitr aur aavran ko taar taar karti hui..
आपका पर्यवेक्षण सही है , कविता में जो सुचिंतित और सु-अनुभूत
रूप में प्रस्तुत हुआ है !
जब कविता की अंतर्वस्तु व्यापक बिम्ब को लिए हो तो कवि की
सपाटबयानी भी काव्यत्व को क्षरित नहीं करती !
सहज और असहज का द्वंद्व 'नाटक' और 'वास्तविक जीवन' में
उपस्थित है ! वास्तविक जीवन में सहज - जीवन काम्य है , दुरूह है ,
अतः अनुपस्थित सा है ! वहीं नाटक में सायास अभिनय है परन्तु वह
सहज है इस जीवन के सापेक्ष !
मूल में वही जीवन की त्रासदी है , निदान सब अपने ढंग से चुनते हैं !
सब सहज जीने के लिए एक कोना ढूंढते हैं , आवश्यक है , क्योंकि जीवन
तो सहज में है !
अधिकाँश इस सहज - साधना में अंतर्मुखी होते जाते है ! कोई चाहे तो
पलायन कहे पर यह तो उसकी जीवन-इच्छा है , उसका निजी संतुलन !
एक आस्तिक अपने उस सहज जीवन को ईश्वर के निकट जीने की चाह
रखता है , अपनी निजी निर्मिति के साथ , पर खुशी होकर ---
'' हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है।''
कविता सुन्दर है , जीवन की समीक्षा की मांग करती है , कविता का दाय भी
तो यह है !
'जनरव' शब्द ने रोका सहसा , अच्छा शब्द !
आभार ..
अब खत्म हुआ नाटक
पहुँची मैं जनरव के मध्य
इस आशा के साथ की यहाँ भाव बनावटी नही होते
पर आश्चर्य है यहाँ के चरित्रों में सब कुछ अलग-सा दीखता है
निकाल लेना चाहते हैं ये अपने जीवन के अनुभवों से सर्वोत्तम
पर सब बनावटी-सा लगता है
जैसे लोग अपने अन्दर से पुरे वेग से फूटता कुछ
जबरन रोक लेना चाहते हैं, क्या है यह?
सकारात्मकता तो इतना विकृत नहीं करती चहरे को
सोंचती हूँ, लगता है यह भी जी रहे हैं आवरण में
पर इस बार आवरण खुद इनके चरित्रों पर है
लवली जी वास्तविक चित्रण है.
हम सब आवरण लगाकर घूम रहे हैं, बिना आवरण के न तो हम में आने की हिम्मत है और न ही बिना आवरण के किसी को देखने का साहस है. कृत्रिमता ही अनिवार्यता बन गई है.
दीदी, कविता सरल भाषा मे एक यथार्थ को सामने रखती है. जैसे आम बोलचाल हो. अलंकरण की जरूरत भी नहीं. जो बात आपने महसूस की वो पेश की. यह सच्चाई है की जो वास्तविक लगता है, उसकी परतों के पीछे की वास्तविकताएं भी अलग और स्तब्ध करने वाली होती हैं. कविता आत्म से लोक की ओर यात्रा है, आपने भी अपने आत्मनुभावों से बाह्य की ओर जो देखा, अनुभूत किया, उसे प्रस्तुत किया.
बस इतना ही...
सकारात्मकता तो इतना विकृत नहीं करती चहरे को
...
कितनी गहरी पंक्ति लिखी है आपने...!!
हम भी जब चेहरों को देखते हैं..तो कुछ कुछ ऐसा ही सोचते हैं...
साँपों में दिलचस्पी वाली बात भी बहुत अच्छी लगी...
आमतौर पर होती है लोगों को .................
हमें भी है.....मगर ये बात साँपों को बताने की हिम्मत नहीं रखते हम...
:(
अच्छा जी तो आप यहाँ काव्य पाठ कर रही हैं :)
स्कूल के बच्चों की तरह कविता प्रतियोगिता का आयोजन करने वाले इस ब्लॉग पर बहुत दिनो बाद आने का अवसर प्राप्त हुआ ।
लवली जी की यह कविता अपनी सार्थकता की वज़ह से ध्यान आकृष्ट करती है । यथार्थ और अभिनय का द्वन्द्व इस दुनिया का मूल चरित्र है । लेकिन इन पंक्तियों में कला का सम्मान है, जीवन के सहज सरल प्रवाह की महत्ता है और समाज के पाखंड को बेनकाब करने की कोशिश ।
कविता में लय अनेक जगह पर टूटती नज़र आती है, कुछ अनावश्यक शब्दों को छाँटने की ज़रूरत है और कुछ टाइप की ग़लतियाँ भी हैं ।
बढ़िया लवली, आज ही पता चला कि तुम अच्छी कविता भी लिख लेती हो..
अपनी ही कुछ पुरानी लाइनें याद आ गईं....
कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
आपकी कविता सीधी और अच्छी लगी...ये 14वें स्थान पर कैसे रह गई, ताज्जुब हुआ...
खैर, आपको पहली बार पढ़ा है और आगे पढ़ते रहेंगे....
हम तो यही कहना चाहते हैं कि लवली को कविता लगातार लिखना चाहिये।
कविता अच्छी लगी।
अमरेन्द्र त्रिपाठी की प्रतिक्रया पढ़कर अच्छा लगा।
सुन्दर।
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
आपकी लिखी कविता मुझे बहुत बहुत पसंद आयी .....आपकी लेखनी का यह रूप बहुत अच्छा लगा
हम में से हरेक इन्सान उसी रंगमंच का और उसी भीड़ का हिस्सा हैं जो मुखौटा लगाये हुए है, पल पल बदलता है.... जरूरतों के अनुसार।
सुन्दर कविता।
वाकई में, इस कविता में डूब कर मैं तो हतप्रभ हूँ ।
अमरेन्द्र की समीक्षा ने चार चाँद जड़ दिये वह अलग !
Keep it up Lovely..
Its your best composition, I haveread so far !
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