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Thursday, June 10, 2010

बनमानुस...


एक दुनिया है समझदार लोगों की,
होशियार लोगों की,
खूब होशियार.....
वो एक दिन शिकार पर आए
और हमें जानवर समझ लिया...
पहले उन्होंने हमें मारा,
खूब मारा,
फिर ज़बान पर कोयला रख दिया,
खूब गरम...
एक बीवी थी जिसके पास शरीर था,
उन्होंने शरीर को नोंचा,
खूब नोचा...
जब तक हांफकर ढेर नहीं हो गए,
हमारे घर के दालानों में....

हमारी बीवियों ने मारे शरम के,
नज़र तक नहीं मिलाई हमसे
उल्टा उन्हीं के मुंह पर छींटे दिए,
कि वो होश में आएं
और अपने-अपने घर जाएं...
ताकि पक सके रोटियां
खूब रोटियां...

वो होश में आए तो,
जो जी चाहा किया...
हमे फिर मारा,
उन्हें फिर नोंचा...
हमारी रोटियां उछाल दी ऊंचे आकाश में....
खूब ऊंचा....
वो हंसते रहे हमारी मजबूरी पर,
खूब हंसे...


भूख से बिलबिला उठे हम....
जलता कोयला निकल गया मुंह से...
जंगल चीख उठा हमारी हूक से....
पहाड़ कांप उठे हमारी सिहरन से....
नदियों में आ गया उफान,
खूब उफान....

उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,
उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...
उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....
हमने पास में पड़ा डंडा उठाया
और उन्हें हकार दिया,
अपने दालानों से....
वो नहीं माने,
तो मार दिया.....

जंगल से बाहर की दुनिया
यही समझती रही,
हम आदमखोर हैं, बनमानुस...
जंगली कहीं के....
वाह रे समझदार...
वाह री सरकार.....

निखिल आनंद गिरि

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

स्वप्निल तिवारी का कहना है कि -

yun lag raha hai ...ab is nazm ke baad..raavan ka gana "thok de killi" shuru ho jayega... badhiya baaten kahi aapne.. :)

शोभा का कहना है कि -

achha likha hai nikhil. badhayi

विश्व दीपक का कहना है कि -

निखिल जी, रचना अंदर तक उद्वेलित करती है..

लेकिन दिक्कत ये है कि अभी जो नक्सलियों कि स्थिति है(और जो कृत्य वो कर रहे हैं) , उससे कोई भी सभ्य इंसान इत्तेफाक नहीं रख सकता.

कोई हथियार उठाने के लिए क्यूँ बाध्य होता है, मैं ये समझता हूँ.....लेकिन हथियार उठाने के बाद उस इंसान कि जिम्मेदारी बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ अपनी रक्षा करनी होती है, बल्कि उसे पूरे समाज का ध्यान रखना होता.... फिर वही इंसान अगर समाज के निर्दोषों कि ह्त्या करने लगे तो उसके लिए पैदा हुई सहानुभूति खत्म-सी होने लगती है..

आप मेरी बात समझ गए होंगे शायद....

मुझे आपकी रचना पसंद आयी (सच में)... बस ये है कि मैं भावना में बह गया और अपनी बात रखने से खुद को रोक नहीं पाया.

-विश्व दीपक

स्वप्निल तिवारी का कहना है कि -

nikhil ji ..vishvadeepak ji ki bat se main bhi sehmat hun .. us waqt main bhi yer kehna chahta tha par jane kyun kahaa nahi .. :) shanubhuti paida to hui unke liey..lekin ab khatm si ho gayi hai ..

दिपाली "आब" का कहना है कि -

nikhil ji

rachna kahin bheetar tak jaake chhot karti hai, bahut prabhavshaali shabd sanyojan hai
deepak ji ki baat se ittefaq rakhti hun, suhanubhuti hoti hai, par gussa bhi aata hai, kyunki is beech kuch nirdost log pis jaate hain.
is prabhavshali rachna ke liye badhai

रंजना का कहना है कि -

विश्व दीपक जी की बात को ही शब्दशः दुहराना चाहूंगी मैं...

अपूर्व का कहना है कि -

एक लंबे वक्त की चुप्पी के बाद एक बेहतरीन कविता के साथ निखिल जी को यहाँ देखना सुखद रहा...सामयिक कविता अपने उद्देश्य जितनी स्पष्ट और तल्ख है..खासकर ’खूब मारा’, ’खूब हँसे’ जैसी आवृत्तियाँ कविता को हकीकत की सान पर रख कर गज़ब प्रवाह और पैनापन देती हैं..मगर इतनी शानदार कविता अंत तक पहुँचते हुए कुछ लड़खड़ा सी जाती है..कुछ ड्रैमेटिक होते हुए..ऐसा मुझे लगा!
विषय के संदर्भ मे कहना चाहूँगा कि आदिवासियों का हितचिंतन और नक्सलवाद को एक-दूसरे का पर्याय समझना एक बड़ी भूल है..जो पिछले वक्त के तमाम उदाहरणो से स्पष्ट भी हो गयी है..तमाम मोर्चे ऐसे भी है जो हिंसा की परिधि से परे आदिवासियों के लिये न्याय की कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं..और उनके लिये भी नक्सल-हिंसावादी उतने ही खतरनाक हैं जितने कि सरकारी नुमाइंदे!..मगर उनकी कम टी आर पी वैल्यू की वजह से मीडिया की लाइमलाइट से बाहर रह जाना हमारे लिये उन्हे अदृश्य कर देता है..

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी का कहना है कि -

उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,
उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...
उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....
हमने पास में पड़ा डंडा उठाया
और उन्हें हकार दिया,
अपने दालानों से....
वो नहीं माने,
तो मार दिया.....
काश! वास्तव में उन्हें मारा जा सका होता
भले ही वन मानुष या आदमखोर कहलाना पडता.

निर्मला कपिला का कहना है कि -

बहुत देर बाद निखिल जी को पढा। रचना मन को छू गयी । धन्यवाद्

M VERMA का कहना है कि -

अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना

manu का कहना है कि -

रचना कुछ सोचने पर मजबूर नहीं करती...
बस...
हाथ कि मुट्ठियाँ जोर से भिंच जाती हैं पढ़कर.....
डंडा उठाने को मजबूर करती है...कुछ सोचने को नहीं...

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