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Tuesday, May 18, 2010

आज एक बार फिर अचंभित है वो बच्चा


तेजेन्द्र शर्मा हिन्दी के ख्यातिलब्ध कथाकार हैं। यद्यपि इनकी कविताओं और ग़ज़लों का एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, फिर भी ये लोगों से अपना परिचय एक कहानीकार के रूप में ही देते हैं। इनका पूरा-परिचय पढ़ना हो या फिर एक दमदार कहानी पढ़नी हो तो यहाँ जायें। फिलहाल तो हम आपको इनकी एक नई कविता पढ़वा रहे हैं।


बच्चे की आँखों से दुनिया....

आज एक बार फिर
दुनिया को एक बच्चे की तरह देखा।
फैल गई आँखें, अचरज से
दुनिया जैसी है
वैसी क्यों है?

मेरे भीतर का बच्चा
पूछ बैठा मुझसे ये सवाल
रिश्तों का क्यों हुआ ऐसा हाल?
क्यों बदल गए रिश्तों के अर्थ
अर्थ ही क्यों बन गया रिश्ता?

आज एक बार फिर
अचंभित है वो बच्चा।

क्यों किया आविष्कार भगवान का?
मज़हब, बैर, आतंक!
चेहरे एक से
एक ही त्वचा का रंग
फिर भी दुश्मनी

एक बार फिर
परेशान है बच्चा।

मान्यताएँ बनाई जाती हैं
टूटती हैं मान्यताएँ
मरोड़े जाते हैं अर्थ
हर बात के।
शत्रु कहाँ से आते हैं?

एक बार फिर
सोच में पड़ा है बच्चा।

देखता है बड़ों को
घबरा जाता है
उनके झूठ और छल
पड़ जाते हैं बल
उस छोटे से माथे पर।

छोटी छोटी उँगलियों
देखता है बच्चा।

बड़ों के काम
बच्चों के लिये वर्जित
उनको करने से
हो सकते हैं बदनाम
छोटे बच्चे।

आज एक बार फिर
दुनिया को एक बच्चे की तरह देखा
अचरज से फैल गई आंखें
दुनिया जैसी है
वैसी क्यों हैं।

--तेजेन्द्र शर्मा

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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

Unknown का कहना है कि -

बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर

सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !

आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब

केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।

विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

M VERMA का कहना है कि -

एक ही त्वचा का रंग
फिर भी दुश्मनी
त्वचा का रंग बेशक एक सा न हो पर खून का रंग तो एक ही है. बच्चे का अचंभित होना लाज़िमी है

Bhawna का कहना है कि -

मान्यताएँ बनाई जाती हैं
टूटती हैं मान्यताएँ
मरोड़े जाते हैं अर्थ
हर बात के।
शत्रु कहाँ से आते हैं?

एक यक्ष प्रश्न.......
क्यों उत्तर कहीं नहीं

संजीव जी की कविता भी प्रशंसनीय है

दीपक 'मशाल' का कहना है कि -

तेजेंद्र साब की कलम के तो हम भी चाहने वाले हैं जी.. ये बच्चा हर उस आदमी के अन्दर से बोलता है जो इंसान है..

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