अच्युतानंद मिश्र ने 'नक्सलबारी आन्दोलन और हिंदी कविता' पर उल्लेखनीय कार्य किया है। चूँकि अच्युतानंद मूलतः बोकारो के हैं, इसलिए बिरसा मुंडा के सपनों की फसल में जब आग लगती है तो उसकी गर्मी महसूस करते हैं। जबकि सरकार पूरे देश को लगभग यह मनवा चुकी है कि अपने हिस्से की जमीन, अपने हिस्से का हवा-पानी माँगने वाले ये उलगुलानी आतंकवादी है, ऐसे में अच्युतानंद की कविता अंधेरे समय में रोशनी दिखाती है।
बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती
बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती
रात भर कोई
उसके सपनो में कहता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान!
के है रे?
खाट पर लेटा बुधवा
इंतज़ार करता है
उसका पठारी मन पूछता है
जाने कब होगा विहान
जाने कब निकलेगा ललका सूरज
जाने कब ढलेगी ये अँधेरी रात
और फैलने लगती है चुप्पी
जंगल नदी पेड़ पहाड़
सब ख़ामोश
ख़ामोशी में घूमती है धरती
धरती में पड़ती है दरारें
दरारों में कोई भरता है बारूद
और सपनो में कोई बोलता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान
और विहान नहीं होता
ललका सूरज नहीं निकलता !
ये उदासी से भरे दिन हैं
ये पृथ्वी की उदासी के दिन हैं
ये नदी पहाड़ की उदासी के दिन हैं
ये बुधवा की उदासी के दिन है
महज़ पेट की आग में नहीं
जल रहा है बुधवा
आग जंगल में लगी है
और पेट पर हाथ रख
पूछता है बुधवा
कहाँ हो बिरसा कहाँ हो शिबुआ ?
कहाँ हो हमार सिधु-कानु?
क्या पृथ्वी पर चल रहा यह कोई नाटक है
जिसका नायक जंगल उदास है
जिसमे परदे के पीछे से बोलता है कोई
उलगुलान उलगुलान उलगुलान !
और उठता है शोर
और डूबता है दिन
और लगती है आग
धधकता है जंगल
बुधवा का कंठ जलने लगता है
बुधवा सोचता है
बहुत बहुत सोचता है बुधवा इन दिनों
शिबुआ बागी हो गया है
बुधवा पूछता है
क्या यह नून की लड़ाई है
शिबुआ कहता है
यह नून से भी बड़ी लड़ाई है
शिबुआ की तलाश में
रोज़ आती है पुलिस
जब कभी छिप के आता है शिबुआ
तो हँस के कहता है दादा
मै तो खुद पुलिस की तलाश में हूँ
शिबुआ ठठाकर हँसता है
उसकी हँसी से गूँज उठता है जंगल
लगता है धरती की दरारों में कोई विस्फोट होने वाला है
उसकी हँसी डराती है बुधवा को
डर बुधवा को तब भी लगा था
जब माँ डायन हो गयी थी
दादा के मरने के बाद
माँ को बनना पड़ा था डायन
एक दिन अचानक माँ गायब हो गयी
उन्होंने कहा माँ को उठा ले गए हैं देवता
एक देसी मुर्गा और एक बोतल दारू
चढ़ाने पर
देवता ने लौटायी थी माँ की लाश
उस दिन बुधवा
देवता से बहुत डरा था
शिबुआ कहता है
दादा तुमको मालूम नहीं
ये देवता कौन लोग हैं?
ये बस मुर्गा और दारू ही नहीं
आदमी का ग़ोश्त भी खाते हैं
ये तुम्हारा-हमारा
ये पूरे जंगल का ग़ोश्त खाना चाहते हैं दादा
दादा उठो
उठो दादा
दादा तभी होगा विहान
तभी निकलेगा ललका सूरज
बुधवा को लगता है
शिबुआ अब भी बैठा है उसके पास
शिबुआ गा रहा है गीत
"आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ..........."
और बुधवा को लगता है
कोई उसे झकझोर रहा है
कोई हिला रहा है उसे
कोई जगा रहा है उसे
कोई कहता है दादा उठो
हमने ढूँढ़ लिया है देवता को
कल विहान होने पर
उसे लटका देंगे फाँसी पर
दादा तभी निकलेगा ललका सूरज
दादा ये जंगल आदमियों का है
आदमखोरो का नहीं
और छटपटाकर
कटे परवे सा उठ बैठता है बुधवा
के है रे? के है रे?
और गहरे अंधकार में
गूंजता है सन्नाटा
सन्नाटे में गूँजती है
शिबुआ की हँसी .....!
अख़बार में छपा है
सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ
छेड़ दी है जंग
सरकार मने........
शिबुआ कहता है
सरकार मने देवता
मुर्गा और दारू उड़ाने वाला देवता
आदमखोर देवता
तो क्या शिबुआ देवता से लड़ेगा
सोचते ही बुधवा की
छूटने लगती है कँपकपी
उसे माँ याद आती है
जो बचपन में उसके डरने पर
उसे बिरसा और सिद्धू-कानू के
किस्से सुनाती थी
लेकिन माँ डायन है
माँ को देवता ले गए
माँ के प्राण खींच लिए थे देवता ने
माँ क्यों बनी थी डायन?
क्या माँ भी देवता के खिलाफ लड़ रही थी ?
ये कैसी बातें सोचने लगा है बुधवा
छिः देवता को लेकर ऐसी बातें
नहीं सोचनी चाहिए उसे
पर कहीं देवता और सरकार...........
अभी विहान नहीं हुआ है
बस भोरुक्वा दिख रहा है बुधवा को
भोरुक्वा की रोशनी में
बुधवा जा रहा है जंगल की तरफ
उसके आगे जा रही है माँ
माँ के कंधे पर बैठा है
छोटका शिबुआ
छोटका शिबुआ गा रहा है
"आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ..........."
अभी विहान नहीं हुआ है !
अच्युतानंद मिश्र
शब्दार्थः
उलगुलान- विप्लव, वैसे अब यह शब्द क्रांति का पर्याय बन चुका है,
ललका- लाल रंग का,
नून- नमक,
भोरुक्वा- शुक्रतारा।
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
मिश्रा जी आज लिखते तो यह कविता कतई नहीं लिखते। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि लाल निशान वालों का एक मात्र मकसद मातृभूमि को उसके सपूतों के खून से लाल करना होगा। इसके लिए विदेशी आतंकवादियों से उसे हथियार और धन प्राप्त होंगे ...
आपके ब्लाग पर यह रचना देखकर दुख हुआ। कृपया ऐसी किसी रचना को अपने ब्लाग पर देने से पहले उसे आज के संदर्भ में जरूर तोल लें....
बडे सशक्त और मार्मिक तरीके से अच्युतानंद मिश्र जी ने सही बात कही.
मर्म बेंध गयी रचना...
पर काश कि वर्तमान का यह उलगुलान सच्चे अर्थों में जंगल और उसके उपासकों के रक्षार्थ की जाने वाली उलगुलान भर होती...
IS KAVITA KO PADHNE KE BAAD MERA MAN BHI YAHI KEH RAHA HAI...ULGULAAN ULGULAAN ...ULGULAAN...WO JO APNI JAAN KI BAAZI LAGA KAR SHOSHKON KI FAUJ SE LAD RAHE HAIN... UNHE MERA SALAAM...
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